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________________ अनुयोगद्वारसूत्र काल) के समय, ५. सर्व पुद्गलद्रव्य तथा ६. लोकाकाश और अलोकाकाश प्रदेश । इनको मिलाकर फिर सर्व राशि का तीन वार वर्ग करके उस राशि में केवलद्विक—–— केवलज्ञान, केवलदर्शन —की अनन्त पर्यायों का प्रक्षेप करने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्त की संख्या का परिमाण होता है। यही गणनासंख्या की वक्तव्यता है। अब संख्या के अन्तिम प्रकार भावसंख्या का निरूपण करते हैं । भावसंख्या निरूपण ४०२ ५२०. से किं तं भावसंखा ? भावसंखा जे इमे जीवा संखगइनाम - गोत्ताइं कम्माइं वेदेंति । से तं भावसंखा । से तं संखप्पमाणे । से तं भावप्पमाणे । से तं पमाणे । ॥ पमाणे त्ति पयं सम्मत्तं ॥ १. | यही भावसंख्या है, यही भावप्रमाण का वर्णन है तथा यही प्रमाण सम्बन्धी वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में भावसंख्या का निरूपण करके प्रमाण पद की वक्तव्यता का उपसंहार किया है। जो जीव शंखप्रायोग्य तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक- अंगोपांग आदि नामकर्मों एवं नीचगोत्र को विपाकत: वेदन करते हैं अर्थात् तदनुकूल कर्मप्रकृतियों के उदय में वर्तमान हैं, वे भावशंख (संखा ) कहलाते हैं । यही भावसंख्या का अर्थ है । · इस भावसंख्या के वर्णन के साथ प्रमाणद्वार की वक्तव्यता पूर्ण हो जाती है। ॥ इस प्रकार से प्रमाण पद समाप्त हुआ ॥ २. ३. ४. [५२० प्र.] भगवन् ! भावसंख्या (संख्या) का क्या स्वरूप है ? [५२० उ. ] आयुष्मन् ! इस लोक में जो जीव शंखगतिनाम - गोत्र कर्मादिकों का वेदन कर रहे हैं वे भावशंख यद्यपि मूल गाथा में अलोक पद है। लेकिन उपलक्षण से लोक का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। अर्थात् यहां लोक और अलोक दोनों आकाश विवक्षित हैं। ज्ञेयपदार्थ अनन्त होने से केवलद्विक की पर्यायें भी अनन्त हैं। यह उत्कृष्ट अनन्तानन्त का परिमाण बोध के लिए है, लेकिन लोकाकाश में विद्यमान पदार्थों के मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण होने से मध्यम अनन्तानन्त ही उपयोग में लिया जाता है। उत्कृष्ट अनन्तानन्त को सिद्धान्त में उपयोग में न आने के कारण ग्राह्य नहीं माना है। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में दस क्षेपकों एवं उत्कृष्ट अनन्तानन्त मानने, उसके निर्माण की विधि एवं छह क्षेपकों के मिलने का मत कार्मग्रन्थिक आचार्यों का प्रतीत होता है। कार्मग्रन्थिक आचार्यों की असंख्यात और अनन्त संख्या के भेदों को बनाने की प्रक्रिया भी सिद्धान्त से भिन्न है। इसका विस्तार से वर्णन षड्शीति (चतुर्थ कर्मग्रन्थ, श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति, ब्यावर ) में पृ. ३६४ से ३८४ में देखिये । यद्यपि संख्या शब्द से गणना का बोध होता है, किन्तु पूर्व में बताया है कि प्राकृत भाषा में संख्या शब्द शंख का भी वाचक है। इसलिए यहां 'भावसंखा' शब्द द्वीन्द्रिय जीव 'शंख' के लिए प्रयुक्त हुआ जानना चाहिए।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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