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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३०९ जहा को दिर्सेतो ? से जहाणामते कोट्ठए सिया कोहंडाणं भरिए, तत्थ णं माउलुंगा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं बिल्ला पक्खित्ता ते वि माता, तत्थ णं आमलया पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं चणगा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं मुग्गा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं सरिसवा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं गंगावालुया पक्खित्ता सा वि माता, एवामेव एएणं दिटुंतेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणप्फुण्णा । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया । तं सुहुमस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥ ११४॥ [३९७] इस प्रकार प्ररूपणा करने पर जिज्ञासु शिष्य ने पूछाभगवन् ! क्या उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश हैं जो उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट हों ? आयुष्मन् ! हां, (ऐसे आकाशप्रदेश भी रह जाते) हैं। इस विषय में कोई दृष्टान्त है ? हां है। जैसे कोई एक कोष्ठ (कोठा) कूष्मांड के फलों से भरा हुआ हो और उसमें बिजौराफल डाले गए तो वे भी उसमें समा गए। फिर उसमें विल्बफल डाले तो वे भी समा जाते हैं । इसी प्रकार उसमें आंवला डाले जाएं तो वे भी समा जाते हैं। फिर वहां बेर डाले जाएं तो वे भी समा जाते हैं। फिर चने डालें तो वे भी उसमें समा जाते हैं। फिर मूंग के दाने डाले जाएं तो वे भी उसमें समा जाते हैं । फिर सरसों डाले जायें तो वे भी उसमें समा जाते हैं। इसके बाद गंगा महानदी की बालू डाली जाए तो वह भी उसमें समा जाती है। इस दृष्टान्त से उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश होते हैं जो उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट रह जाते हैं। इन पल्यों की दस कोटाकोटि से गुणा करने पर एक सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम का परिमाण होता है । ११४ विवेचन— सूत्र में सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम का स्वरूप बतलाया है। व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम में तो पल्यान्तर्वर्ती बालारों से स्पृष्ट आकाशप्रदेशों का अपहरण किया जाता है और उन बालागों के अपहरण में ही असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती हैं। किन्तु सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम में पल्य स्थित बालाग्रों के असंख्यात खण्ड किये जाते हैं, जिनसे आकाशप्रदेश अस्पृष्ट भी होते हैं और स्पृष्ट भी। कूष्माण्डफल आदि से युक्त कोठे के दृष्टान्त द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। इसमें स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों प्रकार के आकाशप्रदेशों का अपहरण किये जाने से इसका काल व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम से असंख्यात गुणा अधिक होता है। ___बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट और स्पृष्ट दोनों प्रकार के आकाशप्रदेशों को ग्रहण करने का कारण यह है कि उन बालागों के असंख्यात खण्ड कर दिये जाने पर भी वे बादर स्थूल हैं। अतएव उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट प्रदेश सम्भवित हैं और बादरों में अन्तराल होना स्वाभाविक है। जो कूष्मांड से लेकर गंगा की बालुका तक के कोठे में समा जाने के दृष्टान्त से स्पष्ट है। असंख्यात आकाशप्रदेशों के अस्पृष्ट रहने को हम एक दूसरे दृष्टान्त से भी समझ सकते हैं। जैसे काष्ठस्तम्भ
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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