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________________ रूप में समवतीर्ण होना। भाव का स्वरूप और पररूप दोनों में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। जैसे—क्रोध का क्रोध के रूप में समवतार होने के साथ ही मान के रूप में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। अनुयोगद्वारसूत्र का अधिक भाग उपक्रम की चर्चा ने रोक रखा है। शेष तीन निक्षेप संक्षेप में हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना ऐसी है कि ज्ञातव्य विषयों का प्रतिपादन उपक्रम में ही कर दिया है जिससे बाद के विषयों को समझना अत्यन्त सरल हो जाता है। उपक्रम में जिन विषयों की चर्चा की गई है उन सभी विषयों पर हम तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करना चाहते थे जिससे कि प्रबुद्ध पाठकों को यह परिज्ञात हो सके कि आगमसाहित्य में अन्य स्थलों पर इन विषयों की चर्चा किस रूप में है। और परवर्ती साहित्य में इन विषयों का विकास किस रूप में हुआ है। पर समयाभाव के कारण हम चाहते हुए भी यहां नहीं कर पा रहे हैं। 'प्रमाण एक अध्ययन' शीर्षक लेख में हमने.प्रमाण की चर्चा विस्तार से की है, अतः जिज्ञासु पाठक उस ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं। निक्षेप—यह अनुयोगद्वार का दूसरा द्वार है। निक्षेप जैनदर्शन का एक पारिभाषिक और लाक्षणिक शब्द है। पदार्थबोध के लिए निक्षेप का परिज्ञान बहुत ही आवश्यक है। निक्षेप की अनेक व्याख्याएं विभिन्न ग्रन्थों में मिलती हैं। जीतकल्पभाष्य में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है 'नि' शब्द के तीन अर्थ हैं—ग्रहण, आदान आर आधिक्य। 'क्षेप' का अर्थ है प्रेरित करना। जिस वचनपद्धति में नि/अधिक क्षेप/विकल्प है, वह निक्षेप है। सूत्रकृतांगचूर्णि में जिनदासगणिमहत्तर ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार की है—जिसका क्षेप/स्थापन नियत और निश्चित होता है, वह निक्षेप है । वृहद् द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमीचन्द ने लिखा है, युक्तिमार्ग से प्रयोजनवशात्, जो वस्तु को नाम आदि चार भेदों में क्षेपण स्थापन करे वह निक्षेप है।३ नयचक्र में आचार्य मल्लिसेन मल्लधारी ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है—वस्तु का नाम आदि में क्षेप करने या धरोहर रखना निक्षेप है।।४ षट्खण्डागम की धवला टीका में आचार्य वीरसेन ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है—संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है, वह निक्षेप है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं, जो अनिर्णीत वस्तु का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्वारा निर्णय कराये वह निक्षेप है। इसे यों भी कह सकते हैं—अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करना निक्षेप है। अर्थात् शब्द का अर्थ में और अर्थ का शब्द में आरोप करना यानी शब्द और अर्थ को किसी एक निश्चित अर्थ में स्थापित करना ५०. जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृष्ठ ३७६ से ४०५। -लेखक देवेन्द्र मुनि शास्त्री ५१. गहणं आदाणं ति होति णिसद्दो तहाहियत्थम्मि । खिव पेरणे व भणितो अहिउक्खेवो त णिक्खेवो ॥ -जीतकल्पभाष्य ८०९ (बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद) ५२. निक्षिप्यतेऽनेनेति निक्षेपः । नियतो निश्चितो क्षेपो निक्षेपः ॥ -सूत्रकृतांगचूर्णि १, पृष्ठ १७ ५३. जुत्तो सुजुत्तमग्गे जं चउभेयेण होइ खलु ठवणं । वजे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये ॥ -बृहद्नयचक्र २६९ ५४. वस्तु नामादिषु क्षिपतीति निक्षेपः । -नयचक्र ४८ ५५. संशयविपर्यये अनध्यवसाय वा स्थितस्तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः । -धवला ४/१, ३, १/२/६ [२३]
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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