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________________ आया। उसे देखकर उसकी माता पूर्व लक्षणों से अनुमान करती है कि यह पुत्र मेरा ही है। इसे पूर्ववत्अनुमान कहा शेषवत्अनुमान कार्यतः, कारणतः, गुणतः, अवयवतः और आश्रयतः इस तरह पांच प्रकार का है। कार्य से कारण का ज्ञान होना कार्यतःअनुमान कहा जाता है। जैसे शंख, भेरी आदि के शब्दों से उनके कारणभूत पदार्थों का ज्ञान होना; यह एक प्रकार का अनुमान है। कारणतः अनुमान वह है जिसमें कारणों से कार्य का ज्ञान होता है; जैसे तन्तुओं से पट बनता है, मिट्टी के पिण्ड से घट बनता है। गुणत:अनुमान वह है जिससे गुण के ज्ञान से गुणी का ज्ञान किया जाय; जैसे—कसौटी से स्वर्ण की परीक्षा, गंध से फूलों की परीक्षा। अवयवतः अनुमान है अवयवों से अवयवी का ज्ञान होना, जैसे—सींगों से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दांतों से हाथी का। आश्रयत: अनुमान वह है जिसमें आश्रय से आश्रयी का ज्ञान होता है। इसमें साधन से साध्य पहचाना जाता है, जैसे धुएं से अग्नि, बादलों से जल, सदाचरण से कुलीन पुत्र का ज्ञान होता है। दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान के सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट—ये दो भेद हैं। किसी एक व्यक्ति को देखकर तद्देशीय या तज्जातीय अन्य व्यक्तियों की आकृति आदि का अनुमान करना सामान्यदृष्ट अनुमान है। इसी प्रकार अनेक व्यक्तियों की आकृति आदि से एक व्यक्ति की आकृति का अनुमान भी किया जा सकता है। किसी व्यक्ति को पहले एक बार देखा हो, पुनः उसको दूसरे स्थान पर देखकर अच्छी तरह पहचान लेना विशेषदृष्ट अनुमान है। उपमानप्रमाण के साधोपनीत और वैधोपनीत ये दो भेद हैं। साधोपनीत के किंचित् साधोपनीत, प्रायःसाधोपनीत और सर्वसाधोपनीत ये तीन प्रकार हैं। जिसमें कुछ साधर्म्य हो वह किंचित् साधोपनीत है। उदाहरण के लिए जैसा आदित्य है वैसा खद्योत है, क्योंकि दोनों ही प्रकाशित हैं। जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, क्योंकि दोनों में शीतलता है। जिसमें लगभग समानता हो वह प्रायःसाधोपनीत है, जैसे—गाय है वैसी नील-गाय है। जिसमें सब प्रकार की समानता हो वह सर्वसाधोपनीत है। यह उपमा देश, काल आदि की भिन्नता के कारण अन्य में नहीं प्राप्त होती। अतः उसकी उसी से उपमा देना सर्वसाधोपनीत-उपमान है। इसमें उपमेय और उपमान भिन्न नहीं होते। जैसे—सागर सागर के सदृश है। तीर्थंकर तीर्थंकर के समान है। वैधोपनीत के किंचित्वैधोपनीत, प्राय:वैधोपनीत और सर्ववैधोपनीत—ये तीन प्रकार हैं। आगम दो प्रकार के हैं—लौकिक और लोकोत्तर । मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए ग्रन्थ लौकिक आगम हैं। जिन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग गणिपिटक—यह लोकोत्तर आगम है अथवा आगम के सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम अथवा आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम, इस प्रकार तीन भेद हैं। तीर्थंकर द्वारा कथित अर्थ उनके लिए आत्मागम है। गणधररचित सूत्र गणधर के लिए आत्मागम है और अर्थ उनके लिए परम्परागम है। उसके पश्चात् सूत्र, अर्थ दोनों परम्परागम हैं। यह ज्ञानगुणप्रमाण का वर्णन है। दर्शनगुणप्रमाण के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन गुणप्रमाण—ये चार भेद हैं। चारित्रगुणप्रमाण पांच प्रकार का है—सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातचारित्र गुणप्रमाण। सामायिकचारित्र इत्वरिक और यावत्कथित रूप से दो प्रकार का है। छेदोपस्थापनीयचारित्र भी सातिचार और निरतिचार (सदोष और निर्दोष) ऐसे दो प्रकार का है। इसी प्रकार परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातचारित्र [२१]
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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