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या स्तोक है। उस दृष्टि से अर्थ के पश्चात् जायमान या स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह अनुयोग है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है। अथवा सूत्र का अपने अभिधेय में जो योग होता है, वह अनुयोग है। यही बात आचार्य हरिभद्र,५ आचार्य अभयदेव,६ आचार्य शान्तिचन्द्र ने लिखी है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का भी यही अभिमत है।८।
जैन आगम साहित्य में अनुयोग के विविध भेद-प्रभेद हैं। नन्दी में आचार्य देववाचक ने अनुयोग के दो विभाग किये हैं। वहां पर दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ये पांच भेद किये गये हैं।१९ उसमें 'अनुयोग' चतुर्थ है। अनुयोग के 'मूल प्रथमानुयोग' और 'गण्डिकानुयोग' ये दो भेद किये गये हैं।
मूल प्रथमानुयोग क्या है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए आचार्य ने कहा—मूल प्रथमानुयोग में अर्हन् भगवान् को सम्यक्त्वप्राप्ति के भव से पूर्वभव, देवलोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्यश्री, प्रव्रज्या, तप, केवलज्ञान की उत्पत्ति, तीर्थप्रवर्तन, शिष्य-समुदाय, गण-गणधर, आर्यिकाएँ, प्रवर्तिनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, सामान्य केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यक् श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमान में गये हुए मुनि, उत्तर वैक्रियधारी मुनि, सिद्ध अवस्था प्राप्त मुनि, पादपोपगमन अनशन को प्राप्त कर जो जिस स्थान पर जितने भक्त का अनशन कर अन्तकृत् हुए। अज्ञान-रज से विप्रमुक्त हो जो मुनिवर अनुत्तर सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए उनका वर्णन है। इसके अतिरिक्त इन्हीं प्रकार के अन्य भाव, जो अनुयोग में कथित हैं, वह 'प्रथमानुयोग' है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं—'प्रथमानुयोग में सम्यक्त्वप्राप्ति से लेकर तीर्थप्रवर्तन और मोक्षगमन तक का वर्णन है।'२१
दूसरा गण्डिकानुयोग है। गण्डिका का अर्थ है—समान वक्तव्यता से अर्थाधिकार का अनुसरण करने वाली वाक्यपद्धति; और अनुयोग अर्थात् —अर्थ प्रकट करने की विधि। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है—इक्षु के मध्य भाग की गण्डिका सदृश एकार्थ का अधिकार यानी ग्रन्थपद्धति। गण्डिकानुयोग के अनेक प्रकार हैं२२
(१) कुलकर गण्डिकानुयोग— विमलवाहन आदि कुलकरों की जीवनियाँ। १४. सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजनमनुयोगः ।
अथवा अभिधेये व्यापारः सूत्रस्य योगः । अनुकूलोऽनुरूपो वा योगो अनुयोगः । यथा घटशब्देन घटस्य प्रतिपादनमिति ॥
—आवश्यकनियुक्ति, मलय. वृ. नि. १२७ १५. आवश्यकनियुक्ति हरिभद्रियावृत्ति १३० १६. (क) समवायांग, अभयदेववृत्ति १४७
(ख) स्थानांग, ४/१/२६२, पृ. २०० १७. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति—प्रमेयरत्नमंजूषा वृत्ति, पृ. ४-५ १८. अणुजोयणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमाभिधेयेणं ।
वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥ -विशेषावश्यकभाष्य गा. १३८३ १९. परिक्कमे, सुत्ताई, पुव्वगए, अणुयोगे, चूलिया । —श्रीमलयगिरीयानंदीवृत्ति, पृ. २३५ २०. पढमाणुयोगे, गंडियाणुयोगे। -श्रीनन्दीचूर्णी मूल, पृ. ५८ २१. इह मूलभावस्तु तीर्थंकरः तस्य प्रथमं पूर्वभवादि अथवा मूलस्स पढमाणुयोगे एत्थतित्थगरस्स अतीतभवपरियाय परिसत्तई भाणियव्वा ।
श्रीनंदीवृत्ति चूर्णी, पृ. ५८ २२. से किं तं गंडियाणुयोगे ? गंडियाणुयोगे अणेगविहे पण्णत्ते...
-श्रीसमवायांगवृत्ति, पृ. १२० [११]