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________________ ज्ञान के पांच प्रकार] [५३ आचार्यों ने अनेक अभिमत व्यक्त किए हैं। किन्हीं का कथन है कि मनःपर्यायज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है, किन्तु यह समाधान संगत नहीं है, क्योंकि किसी-किसी मनःपर्यायज्ञानी को अवधिदर्शन अवधिज्ञान होते ही नहीं हैं। किसी का मन्तव्य है कि मनःपर्यवज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है। कोई उसे अचक्षुदर्शनपूर्वक मानते हैं तो कोई प्रज्ञापनासूत्र में प्रतिपादित पश्यत्तापूर्वक स्वीकार करते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में इस विषय की विस्तारपूर्वक मीमांसा की गई है। जिज्ञासुजन उसका अवलोकन करें। प्रस्तुत में टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि मन:पर्यायज्ञान मनरूप परिणत पुद्गलस्कन्धों को प्रत्यक्ष जानता है और मन द्वारा चिन्तित बाह्य पदार्थों को अनुमान से जानता है। भाष्यकार और चूर्णिकार का भी यही अभिमत है। इसी अपेक्षा से 'पासइ' शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरा समाधान टीकाकार ने यह किया है कि ज्ञान एक होने पर भी क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसका उपयोग अनेकविध हो स..ता है। अतएव विशिष्टतर मनोद्रव्यों के पर्यायों को जानने की अपेक्षा "जाणइ" कहा है, और सामान्य मनोद्रव्यों को जानने की अपेक्षा 'पासइ' शब्द का प्रयोग किया गया है। (२) क्षेत्रतः—लोक के मध्यभाग में अवस्थित आठ रुचक प्रदेशों से छह दिशाएँ और चार विदिशाएँ प्रवृत्त होती हैं। मानुषोत्तर पर्वत, जो कुण्डलाकार है उसके अन्तर्गत अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र हैं। उसे समयक्षेत्र भी कहते हैं। इसकी लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन की है। मनःपर्यवज्ञानी समयक्षेत्र में रहने वाले समनस्क जीवों के मन की पर्यायों को जानता व देखता है तथा विमला दिशा में सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्रादि में रहने वाले देवों के तथा भद्रशाल वन में रहने वाले संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को भी प्रत्यक्ष करता है। वह नीचे पुष्कलावती विजय के अन्तर्गत ग्राम नगरों में रहने वाले संज्ञी मनुष्यों और तिर्यंचों के मनोगत भावों को भी भलीभाँति जानता है। मन की पर्याय ही मनःपर्यायज्ञान का विषय है। (३) कालत: मनःपर्यवज्ञानी केवल वर्तमान को ही नहीं अपितु अतीतकाल में पल्योपम के असंख्यातवें काल पर्यंत तथा इतना ही भविष्यत्काल को अर्थात् मन की जिन पर्यायों को हुए पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग हो गया है और जो मन की भविष्यकाल में पर्यायें होंगी, जिनकी अवधि पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है, उतने भूत और भविष्यकाल को वर्तमान काल की तरह भली-भांति जानता व देखता है। (४) भावतः-मनःपर्यवज्ञान का जितना क्षेत्र बताया जा चुका है, उसके अन्तर्गत जो समनस्क जीव हैं वे संख्यात ही हो सकते हैं, असंख्यात नहीं। जबकि समनस्क जीव चारों गतियों , में असंख्यात हैं, उन सबके मन की पर्यायों को नहीं जानता। मन का प्रत्यय अवधिज्ञानी भी का सकता है किन्तु मन की पर्यायों को मनःपर्यायज्ञानी सूक्ष्मतापूर्वक, अधिक विशुद्ध रूप से प्रत जानता व देखता है। यहाँ एक शंका होती है कि अवधिज्ञानी का विषय रूपी है और मनःपर्यायज्ञान का विषय भी तो रूपी है फिर अवधिज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी की तरह मन को तथा मन की पर्यायों को क्यों नहीं
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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