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________________ [५१ ज्ञान के पांच प्रकार] वक्कंतिय-मणुस्साणं, किं इड्डिपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मबिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउयकम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, अणिड्डिपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं। __गोयमा! इड्डिपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, णो अणिड्विपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउयकम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं मणपज्जवणाणं-समुप्पज्जइ। ___३६—प्रश्न—यदि अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है तो क्या ऋद्धिप्राप्त—लब्धिधारी अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्षायु-कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्यों को होता है अथवा लब्धिरहित अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है ? उत्तर—गौतम! ऋद्धिप्राप्त अप्रमादी सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष का आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति होती है। ऋद्धिरहित अप्रमादी सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयु वाले कर्मभूमि में पैदा हुए गर्भज मनुष्यों को मन:पर्यवज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। विवेचन ऋद्धिप्राप्त—जो अप्रमत्त आत्मार्थी मुनि अतिशायिनी बुद्धि से सम्पन्न हों तथा अवधिज्ञान, पूर्वगतज्ञान, आहारकलब्धि, वैक्रियलब्धि, तेजोलेश्या, विद्याचारण, जंघाचारण आदि अनेक लब्धियों में से किन्हीं लब्धियों से युक्त हों, उन्हें ऋद्धिप्राप्त कहते हैं। कुछ लब्धियाँ औदयिक भाव में, कुछ क्षायोपशमिक भाव में और कुछ क्षायिक भाव में होती हैं। ऐसी विशिष्ट लब्धियाँ संयम एवं तपरूपी कष्टसाध्य साधना से प्राप्त होती हैं। विशिष्ट लब्धि प्राप्त एवं ऋद्धि-सम्पन्न मुनि को ही मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। अनृद्धिप्राप्त—अप्रमत्त होने पर भी जिन संयतों को कोई विशिष्ट लब्धियाँ प्राप्त नहीं होती, उन्हें अनृद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत कहते हैं। ये मनः पर्यवज्ञान के अधिकारी नहीं होते। ३७ तं च दुविहं उप्पज्जइ, तं जहा उज्जुमती य विउलमती य। तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ दव्वओ णं उज्जुमती अणंते अणंतपदेसिए खंधे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमती अब्भहियतराए, विउलतराए, विसुद्धतराए, वितिमिरतराए जाणइ पासइ। __ खित्तओ णं उज्जुमई जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुडुगपयरे, उर्दू जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु, पन्नरससु कम्मभूमिसु, तीसाए अकम्मभूमिसु, छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निपंचिंदियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अड्डाइजेहिमंगुलेहिं अब्भहियतरागं, विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ। कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं उक्कोसएणवि
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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