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युग-प्रधान-स्थविरावलि का-वन्दन]
[१७ दूष्यगणी को सम्मानपूर्वक वन्दन करता हूँ।
४८. तव-नियम-सच्च-संजम-विणयज्जव-खंति-मद्दवरयाणं ।
सीलगुणगद्दियाणं, अणुओग-जुगप्पहाणाणं ॥ ४८—वे दूष्यगणी तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव (सरलता), क्षमा, मार्दव (नम्रता) आदि श्रमणधर्म के सभी गुणों में संलग्न रहने वाले, शील के गुणों से प्रख्यात और अनुयोग की व्याख्या करने में युगप्रधान थे। (ऐसे श्री दूष्यगणि को वन्दन करता हूँ।)
४९. सुकुमालकोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे ।
पाए पावयणीणं, पडिच्छिय-सएहिं पणिवइए ॥ ४९—पूर्वकथित गुणों से युक्त, उन सभी युगप्रधान प्रवचनकार आचार्यों के प्रशस्त लक्षणों से सम्पन्न, सुकुमार, सुन्दर तलवे वाले और सैकड़ों प्रातीच्छिकों के अर्थात् शिष्यों के द्वारा नमस्कृत, महान् प्रवचनकार श्री दूष्यगणि के पूज्य चरगों को प्रणाम करता हूँ।
विवेचन—जो साधु अपने गण के आचार्य से आज्ञा प्राप्त करके किसी दूसरे गण के आचार्य के समीप अनयोग-सत्रव्याख्यान श्रवण करने के लिए जाते हैं और उस गण के आचार्य उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वे प्रातीच्छिक शिष्य कहलाते हैं।
५०. जे अन्ने भगवंते, कालिय-सुय-आणुओगिए धीरे ।
ते पणमिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं ॥ ५०—प्रस्तुत गाथाओं में जिन अनुयोगधर स्थविरों और आचार्यों को वन्दन किया गया है, उनके अतिरिक्त अन्य जो भी कालिक सूत्रों के ज्ञाता और अनुयोगधर धीर आचार्य भगवन्त हुए । हैं, उन सभी को प्रणाम करके (मैं देववाचक) ज्ञान की प्ररूपणा करूंगा।