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[ नन्दीसूत्र
निर्वेद आदि सद्गुणों की लहरें उठती रहती हैं । श्रीसंघ स्वाध्याय द्वारा कर्मों का संहार करता है और परिषहों एवं उपसर्गों से क्षुब्ध नहीं होता ।
श्रीसंघ में अनेक सद्गुण रूपी रत्न विद्यमान हैं। श्रीसंघ आत्मिक गुणों से भी महान् है । समुद्र चन्द्रमा की ओर बढ़ता है तो श्रीसंघ भी मोक्ष की ओर अग्रसर होता है तथा अनन्त गुणों से गम्भीर है । ऐसे भगवान् श्रीसंघ रूप समुद्र का कल्याण हो ।
प्रस्तुत सूत्रगाथा में स्वाध्याय को योग प्रतिपादित करके शास्त्रकार ने सूचित किया है कि स्वाध्याय चित्त की एकाग्रता का एक सबल साधन है और उससे चित्त की अप्रशस्त वृत्तियों का निरोध होता है ।
संघ - महामन्दर-स्तुति
१२. सम्मद्दंसण - वरवइर, दढ - रूढ - गाढावगाढपेढस्स । धम्म - वर - रयणमंडिय- चामीयर - मेहलागस्स ॥ १३. नियमूसियकणय - सिलायलुज्जलजलंत-चित्त-कूडस्स ।
नंदणवण-मणहरसुरभि-सीलगंधुद्धमायस्स ॥ १४. जीवदया - सुन्दर कंद रुद्दरिय, मुणिवर - मदन्नस्स ।
हे उस धाउ पगलंत - रयणदित्तो सहि गुह स्स ॥ १५. संवरवर - जलपगलिय- उज्झरपविरायमाणहारस्स ।
सावगजण-पउररवंत - मोर नच्चंत कुहरस्स ॥ १६. विणयनयप्पवर मुणिवर फुरंत-विज्जुज्जलंतसिहरस्स ।
विविह-गुण- कप्परुक्खगा, फलभरकुसुमाउलवणस्स ॥ १७. णाणवर - रयण - दिप्पंत-कतंवेरुलिय- विमलचूलस्स । वंदामि विणयपणओ, संघ- महामन्दरगिरिस्स ॥
१२ - १७ – संघमेरु की भूपीठिका सम्यग्दर्शन रूप श्रेष्ठ वज्रमयी है अर्थात् वज्रनिर्मित है। तत्वार्थ - श्रद्धान ही मोक्ष का प्रथम अंग होने से सम्यक् दर्शन ही उसकी सुदृढ़ आधार शिला है । वह शंकादि दूषण रूप विवरों से रहित है। प्रतिपल विशुद्ध अध्यवसायों से चिरंतन है । तीव्र तत्त्व विषयक अभिरुचि होने से ठोस है, सम्यक् बोध होने से जीव आदि नव तत्त्वों एवं षड् द्रव्यों में निमग्न होने के कारण गहरा है । उसमें उत्तर गुण रूप रत्न हैं और मूल गुण स्वर्ण मेखला है। उत्तर गुणों के अभाव में मूल गुणों की महत्ता नहीं मानी जाती अतः उत्तर गुण ही रत्न हैं, उनसे खचित मूल गुण रूप सुवर्ण-मेखला है, उससे संघ - मेरु अलंकृत है।
संघ - मेरु के इन्द्रिय और नोइन्द्रिय का दमन रूप नियम ही उज्ज्वल स्वर्णमय शिलातल हैं।