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________________ मनःपर्याय प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष । प्रस्तुत में 'नो' शब्द का अर्थ है—इन्द्रिय का अभाव। ये तीनों ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है। ये ज्ञान केवल आत्मसापेक्ष है। जैन परम्परा के अनुसार इन्द्रिय-जन्य ज्ञानों को परोक्ष-प्रमाण कहा जाता है। किन्तु प्रस्तुत में प्रमाण-चर्चा पर-सम्मत प्रमाणों के आधार से की है। अतएव यहाँ उसी के अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। वह भी पर-प्रमाण के सिद्धान्त का अनुसरण करके ही कहा गया है। अनुयोगद्वारसूत्र में अनुमान के तीन भेद किये गये हैं—पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्ट-साधर्म्यवत्। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि अनुयोगद्वार में अनुमान के स्वार्थ और परार्थ भेद नहीं बताए हैं। इस प्रकार मूल आगमों में और उसके व्याख्यात्मक साहित्य में अनुमान के अनेक प्रकार के भेदों का एवं उपभेदों का कथन भी है। अनुमान के अवयवों का भी वर्णन किया गया है। प्रत्यक्ष-प्रमाण और परोक्ष-प्रमाण में अनेक प्रकार से वर्गीकरण किये गये हैं, किन्तु इनका यहाँ पर संक्षेप में कथन करना ही अभीष्ट है। नय-विचार जैन परम्परा के आगमों में प्रमाण के साथ-साथ प्रमाण के ही एक अंश नय का भी निरूपण किया गया है। नयों के सम्बन्ध में वर्णन स्थानांगसूत्र में, अनुयोगद्वारसूत्र में और भगवतीसूत्र में भी बिखरे हुए रूप में उपलब्ध होता है। आगमों में नय के स्थान पर दो शब्द और मिलते हैं—आदेश और दृष्टि । अनेकान्तात्मक वस्तु के अनन्त धर्मों में से जव किसी एक ही धर्म का ज्ञान किया जाता है, तब उसे नय कहा जाता है। भगवान महावीर ने कि जितने मत, पक्ष अथवा दर्शन हैं, वे अपना एक विशेष पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्ष का निरास करते हैं। भगवान् ने तात्कालिक उन सभी दार्शनिकों की दृष्टियों को समझने का प्रयत्न किया। उन्होंने अनुभव किया कि नाना मनुष्यों के वस्तु-दर्शन में जो भेद हो जाता है, उसका कारण केवल वस्तु की अनेकरूपता अथवा अनेकान्तात्मकता ही नहीं, बल्कि नाना मनुष्यों के देखने के प्रकार की अनेकता एवं नानारूपता भी कारण है। इसलिए उन्होंने सभी मतों, सभी दर्शनों को वस्तुस्वरूप के दर्शन में योग्य स्थान दिया है। किसी मत-विशेष एवं पंथ-विशेष का सर्वथा खण्डन एवं सर्वथा निराकरण नहीं किया है। निराकरण यदि किया है, तो इस अर्थ में कि जो एकान्त आग्रह का विषय था, अपने ही पक्ष को-अपने ही मत या दर्शन को सत्य और दूसरों के मत, दर्शन एवं पक्ष को मिथ्या कहने एवं मिथ्या मानने का जो कदाग्रह था तथा हठाग्रह था, उसका निराकरण करके उन सभी मतों को एवं विचारों को नया रूप दिया है. उसे एकांगी या अधूरा कहा गया है। प्रत्येक मतवादी कदाग्रही होकर दूसरे के मत को मिथ्या मानते थे। वे समन्वय न कर सकने के कारण एकान्तवाद के दलदल में फंस जाते थे। भगवान् महावीर ने उन्हीं के मतों को स्वीकार करके उनमें से कदाग्रह का एवं मिथ्याग्रह का विष निकाल कर सभी का समन्वय करके अनेकान्तमयी संजीवनी औषध का आविष्कार किया है। यही भगवान् महावीर के नयवाद, दृष्टिवाद, आदेशवाद और अपेक्षावाद का रहस्य है। नयों के भेद के सम्बन्ध में एक विचार नहीं है। कम से कम दो प्रकार से आगमों में नय-दृष्टि का विभाजन किया गया है। सप्तनय—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत। एक दूसरे प्रकार से भी नयों का विभाजन किया गया है—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वस्तुतः देखा जाये तो काल और देश के भेद से द्रव्यों में विशेषताएं अवश्य होती हैं। किसी भी विशेषता को काल एवं देश से मुक्त नहीं किया जा सकता। अन्य कारणों के (२५)
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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