________________
अभिमत
श्री आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित २०"x३०" आकार के लगभग १५,००० पृष्ठों वाले ३२ ग्रन्थरत्नों को एक साथ देखकर चित्त प्रफुल्लित हो उठा। मात्र ५ वर्षों के अत्यल्प काल में ही उनका सुस्पष्ट एवं प्रामाणिक सम्पादन, शब्दानुगामी हिन्दी अनुवाद, दुरूह स्थलों का विवेचन, विश्लेषण, विस्तृत समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन तथा नयनाभिराम प्रकाशन, शोध एवं साहित्य जगत् में निश्चय ही एक ऐतिहासिक चमत्कार माना जायेगा।
अर्धमागधी आगम-साहित्य वस्तुतः प्राच्य भारतीय इतिहास, संस्कृति, समाज, भाषा, साहित्य एवं विविध साहित्यिक शैलियों, धर्म, दर्शन तथा लोग जीवन का यथार्थ दर्पण है। भाषा-वैज्ञानिकों के मतानुसार महावीर-पूर्व-युग से लेकर ईस्वी सदी के प्रारम्भकाल तक प्राकृत-भाषा भारत की जनभाषा अथवा राष्ट्रभाषा थी। इसी कारण लोकनायक तीर्थकर महावीर के प्रवचन तत्कालीन लोकप्रिय जनभाषा में ही हुए थे। परवर्ती मौर्य सम्राट अशोक एवं कलिंग सम्राट् खारवेल के शिलालेख भी उक्त तथ्य के ज्वलन्त प्रमाण हैं। अत: प्राचीन भारत के अन्तर्बाह्य स्वरूप का प्रामाणिक अध्ययन अर्धमागधी आगमों के अध्ययन के बिना सम्भव नहीं। इतने महत्त्व वाले उक्त आगम ग्रन्थ सहज सुलभ नहीं होने के कारण शोधार्थी विद्वज्जन उनके सदुपयोग से प्रायः वंचित जैसे ही रहते रहे। किन्तु अब 'समिति' ने उन्हें सर्वगम्य एवं सर्वसुलभ बनाकर एक बड़े भारी अभाव की पूर्ति की है। इस महान् कार्य के लिए श्रमणसंघ के युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिजी तथा उसके उत्प्रेरकों, दानवीरों एवं सम्पादकाचार्यों की जितनी प्रशंसा की जाय, वह थोड़ी ही होगी।
उक्त आगम ग्रन्थों में से आचारांग एवं सूत्रकृतांग जहां विविध दार्शनिक विचाराधराओं के समकालीन प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थ हैं,वहीं स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्त:कृद्दशा, औपपातिक, विपाकसूत्र आदि ग्रन्थ विविध ज्ञान-विज्ञान के अपूर्व कोषग्रन्थ माने जा सकते हैं। दर्शन एवं अध्यात्म के अतिरिक्त वे इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, भाषा-विज्ञान, मनोविज्ञान, गणित, ज्योतिष, भौतिक, रसायन, वनस्पति एवं जीव-विज्ञान, चिकित्सा-पद्धति, भूगोल, विविध कलाओं, लिपि-प्रकार, लेखन सामग्रीप्रकार विविध उद्योग-धन्धे, समाज, राजनीति एवं अर्थ-विद्या, विदेश-व्यापार, बाजार-पद्धति, विनिमय के साधन, नीति-शिक्षा, पथ-प्रकार, न्याय-पद्धति एवं अपराध तथा दण्डनीति आदि की समकालीन जानकारी के भी अपूर्व स्रोत हैं। इन आगम ग्रन्थों पर विविधविषयक दर्जनों उच्चस्तरीय शोध-प्रबन्ध तैयार कराए जा सकते हैं। ये प्रकाशन शोधार्थियों को नवीन प्रेरणाएँ देने में सक्षम सिद्ध होंगे, इसमें सन्देह नहीं।
परम श्रुताराधक आदरणीय देवेन्द्रमुनि एवं विजयमुनिजी तथा साधुमूर्ति श्री डॉ. छगनलालजी शास्त्री ने समीक्षात्मक गम्भीर अध्ययन और विद्वद्वरेण्य प्रतिभामूर्ति श्री पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, श्री पं. हीरालालजी शास्त्री, श्री श्रीचन्द्रजी सुराना, अमरमुनिजी, साध्वी दिव्यप्रभा एवं मुक्तिप्रभा एवं स्वस्तिमती कमला 'जीजी' ने पाठालोचन, पाठ-संशोधन, अनुवाद एवं विवेचना-विश्लेषण में जो अथक श्रम किया है, उसे मुक्तभोगी ही समझ सकता है। उनके प्रयत्न अत्यन्त सराहनीय हैं। उत्तमोत्तम सारस्वत-कार्य के लिए पुन: मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
डाक्टर राजाराम जैन, एम.ए., पी.एच.डी., शास्त्राचार्य, अध्यक्ष संस्कृत-प्राकृत विभाग,
एच.डी.जैन कॉलेज, आरा (बिहार)