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________________ १२४] [ नन्दीसूत्र इस प्रकार विचार करते-करते स्थूलिभद्र को विरक्ति हो गई । वह राज दरबार से उलटे पैरों लौट आया और आचार्य सम्भूतिविजय के समक्ष जाकर उनका शिष्य बन गया । स्थूलिभद्र के मुनि बन जाने पर राजा ने श्रियक को अपना मंत्री बनाया। स्थूलभद्र मुनि अपने गुरु साथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए संयम का पालन करते रहे तथा ज्ञान - ध्यान में रत बने रहे। एक बार भ्रमण करते हुए वे पाटलिपुत्र के समीप पहुँचे तथा चातुर्मासकाल निकट होने से गुरुदेव ने वहीं वर्षावास करने का निश्चय किया। उनके स्थूलिभद्र सहित चार शिष्य थे। चारों ने ही उस बार भिन्न-भिन्न स्थानों पर वर्षाकाल बिताने की गुरु से आज्ञा ले ली । एक ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने भयानक सर्प के बिल पर तीसरे ने एक कुंए के किनारे पर तथा चौथे स्थूलभद्र ने कोशा वेश्या के घर पर। चारों ही अपने-अपने स्थानों पर चले गये । कोशा वेश्या स्थूलभद्र मुनि को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और विचार करने लगी कि पूर्व के समान ही भोग-विलास में समय व्यतीत हो सकेगा। स्थूलिभद्र की इच्छानुसार कोशा ने अपनी चित्रशाला में उन्हें ठहरा दिया। वह नित्य भांति-भांति के श्रृंगार तथा हाव-भावादि के द्वारा उन्हें भोगों की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी, किन्तु स्थूलिभद्र अब पहले वाले स्थूलिभद्र नहीं थे । वह तो प्रारंभ में मधुर, आकर्षक और प्रिय लगने वाले किन्तु बाद में असहनीय पीड़ा प्रदान करने वाले किंपाक फल के सदृश काम-भोगों को त्याग चुके थे । अतः किस प्रकार उनमें पुनः लिप्त होकर आत्मा को पतन की ओर अग्रसर करते ? कहा भी है " विषयासक्तचित्तो हि यतिर्मोक्षं न विंदति । " - जिसका चित्त साधु-वेश धारण करने के पश्चात् भी विषयासक्त रहता है, ऐसी आत्मा मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकती । कोशा के लाख प्रयत्न करने पर भी उनका मन विचलित नहीं हुआ । पूर्ण निर्विकार भाव से वह अपनी साधना में रत रहे । स्थूलिभद्र का शांत एवं विकार-रहित मुख देखकर कोशा की भोगलालसा ठीक उसी प्रकार शांत हो गई जैसे अग्नि पर शीतल जल गिरने से वह शांत हो जाती है। जब स्थूलभद्र ने यह देखा तो कोशा को प्रतिबोधित किया। उसने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये । चातुर्मास की समाप्ति पर चारों शिष्य गुरु की सेवा में पहुँचे । गुरुजी ने सिंह की गुफा में, सर्प के बिल तथा कुएं के किनारे पर वर्षावास बिताने वाले तीनों शिष्यों की प्रशंसा करते हुए कहा- 'तुमने दुष्कर कार्य किया।' किन्तु जब मुनि स्थूलिभद्र ने अपना मस्तक गुरु के चरणों में झुकाया तो उन्होंने कहा- 'तुमने अति दुष्कर कार्य किया है।' स्थूलिभद्र के लिए गुरु के द्वारा ऐसा कहे जाने से अन्य शिष्यों के हृदय में ईर्ष्याभाव उत्पन्न हो गया। वे स्वयं को स्थूलभद्र के समान साबित करने का अवसर देखने लगे । अगला चातुर्मास आते ही अवसर मिल गया। सिंह की गुफा में चातुर्मास करने वाले शिष्य इस बार कोशा वेश्या की चित्रशाला में वर्षाकाल बिताने की आज्ञा माँगी। गुरु ने उसे आज्ञा नहीं दी पर वह बिना आज्ञा के ही कोशा के निवास की ओर चल दिया। कोशा ने उसे अपनी रंगशाला
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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