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________________ मतिज्ञान] [१०१ (२) वैनयिकी बुद्धि का लक्षण ५०. भरनित्थरण-समत्था, तिवग्ग-सुत्तत्थ-गहिय-पेयाला । उभओ लोग फलवई, विणयसमुत्था हवई बुद्धी ॥ विनय से पैदा हुई बुद्धि कार्य भार के निरस्तरण अर्थात् वहन करने में समर्थ होती है। त्रिवर्गधर्म, अर्थ, काम का प्रतिपादन करने वाली तथा सूत्र तथा अर्थ का प्रमार-सार ग्रहण करने वाली है तथा यह विनय से उत्पन्न बुद्धि इस लोक और परलोक में फल देने वाली होती है। वैनयिकी बुद्धि के उदाहरण निमित्ते-अत्थसत्थे अ, लेहे गणिए अ कूव अस्से य । गद्दभ-लक्खण गंठी, अगए रहिए य गणिया य॥ सीआ साडी दीहं च तणं, अवसव्वयं च कुंचस्स । निव्वोदए य गोणे, घोडग पडणं च रुक्खाओ ॥ ५०—(१) निमित्त (२) अर्थशास्त्र (३) लेख (४) गणित (५) कूप (६) अश्व (७) गर्दभ (८) लक्षण (९) ग्रंथ (१०) अगड (११) रथिक (१२) गणिका (१३) शीताशाटी (गीली धोती) (१४) नीव्रोदक (१५)बैलों की चोरी, अश्व का मरण, वृक्ष से गिरना। ये वैनयिकी बुद्धि के उदाहरण हैं। (१) निमित्त—किसी नगर में एक सिद्ध पुरुष रहता था। उसके दो शिष्य थे। गुरु का दोनों पर समान स्नेह था। वह समान भाव से दोनों को निमित्तशास्त्र का अध्ययन कराता था। दोनों शिष्यों में से एक बड़ा विनयवान् था। अतः गुरु जो आज्ञा देते उसका यथावत् पालन करता तथा जो भी सिखाते उस पर निरन्तर चिन्तन-मनन करता रहता था। चिन्तन करने पर जिस विषय में उसे किसी प्रकार की शंका होती उसे समझने के लिये अपने गुरु के समक्ष उपस्थित होता तथा विनयपूर्वक उनकी चरण वंदना करके शंका का समाधान कर लिया करता था। किन्तु दूसरा शिष्य अविनीत था और बार-बार गुरु से कुछ पूछने में भी अपना अपमान समझता था। प्रमाद के कारण पठित विषय पर विमर्श भी नहीं करता था। अतः उसका अध्ययन अपूर्ण एवं दोषपूर्ण रह गया, जबकि पहला विनीत शिष्य सर्वगुणसम्पन्न एवं निमित्तज्ञान में पारंगत हो गया। एक बार गुरु की आज्ञा से दोनों शिष्य किसी गाँव को जा रहे थे। मार्ग में उन्हें बड़े-बड़े पैरों के पदचिह्न दिखाई दिये। अविनीत शिष्य ने अपने गुरुभाई से कहा "लगता है कि ये पदचिह्न किसी हाथी के हैं।" उत्तर देते हुए दूसरा शिष्य बोला"नहीं मित्र! ये पैरों के चिह्न हाथी के नहीं, हथिनी के हैं। वह हथिनी वाम नेत्र से कानी है। इतना ही नहीं, हथिनी पर कोई रानी सवार है और वह सधवा तथा गर्भवती भी है। रानी आजकल में ही पुत्र का प्रसव करेगी।" केवल पद-चिह्नों के आधार पर इतनी बातें सुनकर अविचारी शिष्य की आँखें कपाल पर
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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