SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मतिज्ञान] [९७ के समान इन्कार नहीं कर सका और अन्दर आकर हजार मोहरों वाली थैली ले आया। थैली उसके स्वामी को मिल गई। वे धूर्त संन्यासी किसी विशेष कार्य याद आ जाने का बहाना करते चलते बने। जुआरियों की औत्पत्तिकी बुद्धि के कारण उस व्यक्ति को अपनी अमानत वापिस मिल गई। धूर्त भिक्षु हाथ मलता रह गया। (२३) चेटकनिधान दो व्यक्ति आपस में घनिष्ठ मित्र थे। एक बार वे दोनों शहर से बाहर जंगल में गये हुए थे कि अचानक उन्हें वहाँ एक गड़ा हुआ निधान उपलब्ध हो गया। दोनों निधान पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उनमें से एक ने कहा—'मित्र! हम बड़े भाग्यवान् हैं जो अकस्मात् ही हमें निधान मिल गया। पर इसे हम आज नहीं, कल यहाँ से ले चलेंगे। कल का दिन बड़ा शुभ है।' दूसरे मित्र ने सहज ही उसकी बात मान ली और दोनों अपने-अपने घर आ गये। किन्तु जिसने अगले दिन लाने का सुझाव दिया था वह बड़ा मायावी और धूर्त था। वह रात को पुनः जंगल में गया और सारा धन वहाँ से निकालकर उस स्थान पर कोयले भर कर चला आया। अगले दिन दोनों पूर्व निश्चयानुसार निधान की जगह पहुँचे, पर धन होता तो मिलता। वहाँ तो कोयले ही कोयले थे। यह देखकर कपटी मित्र सिर और छाती पीट-पीट कर रोने और कहने लगा "हाय, हम कितने भाग्यहीन हैं कि दैव ने धन देकर भी हमसे छीन लिया और उसे कोयला कर दिया।" इसी तरह बार-बार कहता हुआ वह चोर नजरों से मित्र की ओर देखता जाता था कि उस पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है! दूसरा मित्र सरल अवश्य था किन्तु इतना मूर्ख नहीं था। अपने मित्र के बनावटी विलाप को वह समझ गया और उसे विश्वास हो गया कि इस धूर्त ने ही धन निकालकर वहाँ कोयले भर दिये हैं। फिर भी उसने अपने कपटी मित्र को सान्त्वना देते हुए कहा—'मित्र! रोओ मत, अब दु:ख करने से निधान वापिस थोड़े ही आयेगा।' तत्पश्चात् दोनों अपने-अपने घर लौट आए, किन्तु सरल स्वभावी मित्र ने भी अपने मायावी मित्र को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। उसने उसकी एक प्रतिमा बनवाई थी जो बिल्कुल उसी की शक्ल से मिलती थी। धूर्त मित्र की प्रतिमा को उसने अपने घर पर रख लिया और दो बंदर पाले। वह बंदरों के खाने योग्य पदार्थ उसी प्रतिमा के मस्तक पर, कन्धों पर, हाथों पर, जंघा पर तथा पैरों पर रख देता था। बन्दर उन स्थानों पर से भोज्य-पदार्थ खा जाते तथा प्रतिमा पर उछल-कूद करते रहते। इस प्रकार वे प्रतिमा की शक्ल को पहचान गये और उससे खूब खेलने लगे। कुछ दिन बीत जाने पर एक पर्व के दिन उस भले मित्र ने अपने मायावी मित्र के यहाँ जाकर उससे कहा—'आज त्यौहार का दिन है। अपने दोनों पुत्रों को मेरे साथ भोजन करने के लिए भेज दो।' मित्र ने प्रसन्न होकर लड़कों को खाने के लिए भेज दिया। भले मित्र ने समय पर बच्चों को बहुत प्यार से खिलाया और फिर एक अन्य स्थान पर सुखपूर्वक छिपा दिया। सांयकाल के समय कपटी मित्र अपने लड़कों को लेने के लिये आया। उसे दूर से आता देख कर ही शीघ्रतापूर्वक पहले मित्र ने कपटी की उस प्रतिमा को वहाँ से हटा दिया और उसी
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy