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छत्तीसवाँ अध्ययन
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'जीवाजीव-विभक्ति
संस्थान की अपेक्षा से पंचविध परिणमन के अनेक भेद बताए गए हैं।
* जीव शुद्धस्वरूप की दृष्टि से विभिन्न श्रेणी के नहीं हैं, किन्तु कर्मों से आवृत होने के कारण शरीर, इन्द्रिय, मन, गति, योनि, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से उनके भेदों का निरूपण किया गया है।
* सर्वप्रथम जीव के दो भेद बताए हैं- सिद्ध और संसारी । सिद्धों के क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ आदि की अपेक्षा से अनेक भेद किए गए हैं।
फिर संसारी जीवों के मुख्य दो भेद बतलाए हैं— स्थावर और त्रस । स्थावर के पृथ्वीकाय आदि तीन और त्रस के तेजस्काय, वायुकाय और द्वीन्द्रियादि भेद बताए गए हैं।
* उसके पश्चात् पंचेन्द्रिय के मुख्य चार भेद — नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, बताकर उन सबके भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है।
* जीव के प्रत्येक भेद के साथ-साथ उनके क्षेत्र और काल का निरूपण किया गया है। काल में— प्रवाह और स्थिति, आयुस्थिति, कायस्थिति और अन्तर का भी निरूपण किया गया है। साथ ही भाव की अपेक्षा से प्रत्येक प्रकार के जीव के हजारों भेदों का प्रतिपादन किया गया है।
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* अन्त में जीव और अजीव के स्वरूप का श्रवण, ज्ञान, श्रद्धान करके तदनुरूप संयम में रमण करने का विधान किया गया है। २
* अन्तिम समय में संल्लेखना — संथारापूर्वक समाधिमरण प्राप्त करने हेतु संलेखना की विधि, कन्दर्पी आदि पांच अशुभ भावनाओं से आत्मरक्षा तथा मिथ्यादर्शन, निदान, हिंसा, एवं कृष्णलेश्या से बचकर सम्यग्दर्शन, अनिदान और शुक्ललेश्या, जिन-वचन में अनुराग तथा उनका भावपूर्वक आचरण तथा योग्य सुदृढ़ संयमी गुरुजन के पास आलोचनादि से शुद्ध होकर परीतसंसारी बनने का निर्देश किया गया है। ३
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उत्तरा. मूलपाठ, अ. ३६, गा. ४ से ४७ तक २. वही, गा. ४७ से २४९ तक
३. वही, गा. २५० से २६७ तक