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________________ पैंतीसवाँ अध्ययन : अनगारमार्गगति ५९१ विवेचन - साधु पूजा प्रतिष्ठादि की वाञ्छा न करे—अर्चना - पुष्पादि से पूजा, रचना - स्वस्तिक आदि का न्यास, अथवा सेवना ( पाठान्तर ) – उच्च आसन पर बिठाना, वन्दन - नमस्कारपूर्वक वाणी से अभिनन्दन करना, पूजन — विशिष्ट वस्त्रादि का प्रतिलाभ । ऋद्धि-श्रावकों से उपकरणादि की उपलब्धि, अथवा आमर्षौषधि आदि रूप लब्धियों की सम्पदा, सत्कार -अर्थ प्रदान आदि । सम्मान — अभ्युत्थानं आदि की इच्छा न करे । शुक्लध्यानलीन, अनिदान, अकिंचन : मुनि १९. सुक्कज्झाणं झियाएज्जा अणियाणे अकिंचणे । वोसट्टकाए विहरेजा जाव कालस्स पज्जओ ॥ [१९] मुनि शुक्ल (-विशुद्ध - आत्म-) ध्यान में लीन रहे । निदानरहित और अकिंचन रहे । जहाँ तक काल का पर्याय है, (जीवनपर्यन्त) शरीर का व्युत्सर्ग (कायासक्ति छोड़ कर विचरण करे । विवेचन—-वोसट्टकाए विहरेज्जा-शरीर का मानो त्याग ( व्युत्सर्ग) कर दिया है, इस प्रकार से अप्रतिबद्ध रूप से विचरण करे। २ अन्तिम आराधना से दुःखमुक्त मुनि २०. निज्जूहिऊण आहारं कालधम्मे उवट्ठिए । जहिऊण माणसं बोन्दिं पहू दुक्खे विमुच्चई ॥ [२०] (अन्त में) कालधर्म उपस्थित होने पर मुनि आहार का परित्याग कर (संलेखना - संथारापूर्वक) मनुष्य शरीर को त्याग कर दुःखों से विमुक्त, प्रभु (विशिष्ट सामर्थ्यशाली ) हो जाता है। १-२-३. २१. निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो । संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिव्वुए ॥ [२१] निर्मम, निरहंकार, वीतराग और अनाश्रव मुनि केवलज्ञान को सम्प्राप्त कर शाश्वत परिनिर्वाण को प्राप्त होता है । विवेचन — निज्जूहिऊण आहारं संलेखनाक्रम से चतुर्विध आहार का परित्याग कर। बिना संलेखना किए सहसायावज्जीवन आहार त्याग करने पर धातुओं के परिक्षीण होने पर अन्तिम समय में आर्त्तध्यान होने की सम्भावना है। पहू : विशेषार्थ - प्रभु -वीर्यान्तराय के क्षय से विशिष्ट सामर्थ्यवान् होकर । ३ ॥ अनगारमार्गगति : पैंतीसवाँ अध्ययन समाप्त ॥ बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष, भा. १, पृ. २८२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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