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________________ ५८४ उत्तराध्ययनसूत्र हैं, अतएव देव-मनुष्यरूप सुगतिगामिनी हैं। ११. आयुष्यद्वार ५८. लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु। नवि कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स॥ [५८] प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। ५९. लेसाहिं सव्वाहिं चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। नवि कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स॥ [५९] अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से भी कोई जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। ६०. अन्तमुहुत्तम्मि गए अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव। लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छन्ति परलोयं॥ [६०] लेश्याओं की परिणति होने पर जब अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाता है, और जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं। विवेचन—परलोक में लेश्याप्राप्ति कब और कैसे?—प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा से छहों ही लेश्याओं के प्रथम समय में जीव का परभव में जन्म नहीं होता और न ही अन्तिम समय में। किसी भी लेश्या की प्राप्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जीव परलोक में जन्म लेते हैं। आशय यह है कि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में अतीतभव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक होना आवश्यक है। देवलोक और नरक में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों और तिर्यञ्चों को मृत्युकाल में अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक अग्रिम भव की लेश्या का सद्भाव होता है। मनुष्य और तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होने वाले देव-नारकों को भी मरणानन्तर अपने पहले भव की लेश्या अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक रहती है। अतएव आगम में देव और नारक की लेश्या का पहले और पिछले भव के लेश्यासम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्त के साथ स्थितिकाल बतलाया है। प्रज्ञापनासूत्र में भी कहा है—जिनलेश्याओं के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव मरता है, उन्हीं लेश्याओं को प्राप्त करता है। उपसंहार ६१. तम्हा एयाण लेसाणं अणुभागे वियाणिया। अप्पसत्थाओ वज्जिता पसत्थओ अहिढेजासि॥-त्ति बेमि॥ [६१] अतः लेश्याओं के अनुभाग (विपाक) को जान कर अप्रशस्त लेश्याओं का परित्याग करके प्रशस्त लेश्याओं में अधिष्ठित होना चाहिए। —ऐसा मैं कहता हूँ। ॥चौतीसवाँ लेश्याध्ययन समाप्त॥ १. (क) तओ लेसाओ अविसुद्धाओ, तओ विसुद्धाओ, तओ पसत्थाओ, तओ अपसत्थाओ, तओ संकिलिट्ठाओ, तओ असंकिलिट्ठाओ, तओ दुग्गतिगामियाओ, तओ सुगतिगामियाओ।........ प्रज्ञापना पद १७ उ.४ सू. २२८ (ख) बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष भा.६, पृ. ६८८ २. (क) बृहवृत्ति, अ. रा. को भा. ६, पृ. ६९५ (ख) जल्लेसाई दव्वाइं आयइत्ता कालं करेति, तल्लेसेसु उववज्जइ। -प्रज्ञापना पद १७३-४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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