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________________ तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति [७] वेदनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है—सातावेदनीय और असातावेदनीय। सातावेदनीय के अनेक भेद हैं, इसी प्रकार असातावेदनीय के भी अनेक भेद हैं। ८. मोहणिजं पि दुविहं दंसणे चरणे तहा। दंसणं तिविहं वुत्तं चरणे दुविहं भवे॥ [८] मोहनीय कर्म के भी दो भेद हैं—दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। दर्शनमोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं। ९. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं सम्मामिच्छित्तमेव य। एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिजस्स दंसणे॥ [९] सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व—ये तीन दर्शनीय-मोहनीय की प्रकृतियाँ हैं। १०. चारित्तमोहणं कम्मं दुविहं वियाहियं। कसायमोहणिजे तु नोकसायं तहेव य॥ [१०] चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है—कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । ११. सोलसविहभेएणं कम्मं तु कसायजं। सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं॥ [११] कषायमोहनीय कर्म के सोलह भेद हैं। नोकषायमोहनीय कर्म के सात अथवा नौ भेद हैं। १२. नेरइय-तिरिक्खाउ मणुस्साउ तहेव य। देवाउयं चउत्थं तु आउकम्मं चउव्विहं॥ [१२] आयुकर्म चार प्रकार का है—नैरयिक-आयु, तिर्यग्-आयु, मनुष्यायु और चौथा देवायुकर्म। १३. नामं कम्मं तु दुविहं सुहमसुहं च आहियं। सुहस्स उ बहू भेया एमेव असुहस्स वि॥ [१३] नामकर्म दो प्रकार को कहा गया है—शुभनाम और अशुभनाम। शुभनाम के बहुत भेद हैं, इसी प्रकार अशुभ (नामकर्म) के भी। १४. गोयं कम्मं दुविहं उच्चं नीयं च आहियं। उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि आहियं॥ [१४] गोत्रकर्म दो प्रकार का है—उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उच्च (गोत्र) आठ प्रकार का है, इसी प्रकार नीचगोत्र भी (आठ प्रकार का) कहा गया है। १५. दाणे लाभे य भोगे य उवभोगे वीरिए तहा। पंचविहमन्तरायं समासेण वियाहियं॥ [१५] अन्तराय (कर्म) संक्षेप में पांच प्रकार का कहा गया है—दान-अन्तराय, लाभ-अन्तराय, भोग-अन्तराय, उपभोग-अन्तराय और वीर्य-अन्तराय।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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