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________________ तेत्तीसइमं अज्झयणं : कम्पपयडी तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति कर्मबन्ध और कर्मों के नाम १. अट्ठ कम्माई वोच्छामि आणुपुट्विं जहक्कम। जेहि बद्धो अयं जीवो संसारे परिवत्तए॥ [१] मैं आनुपूर्वी के क्रमानुसार आठ कर्मों का वर्णन करूंगा, जिनसे बंधा हुआ यह जीव संसार में परिवर्तन (–परिभ्रमण) करता रहता है। २. नाणस्सावरणिजं दंसणावरणं तहा। वेयणिज तहा मोहं आउकम्मं तहेव य॥ ___३. नामकम्मं च गोयं च अन्तरायं तहेव य। एवमेयाइ कम्माइं अद्वैव उ समासओ॥ [२-३] ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय तथा आयु कर्मनाम कर्म, गोत्र कर्म और अन्तराय (कर्म), इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कर्म हैं। विवेचन-कर्म का लक्षण—जिन्हें जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों द्वारा (बद्ध) करता है, उन्हें कर्म कहते हैं। आणुपुब्विं जहक्कम : भावार्थ—पूर्वानुपूर्वी के क्रमानुसार। बन्ध : स्वरूप और प्रकार-बन्ध का अर्थ है-जिससे जीव बँध जाए। वह दो प्रकार का हैद्रव्यबन्ध और भावबन्ध। द्रव्यबन्ध रस्सी आदि से बांधना या बन्धन में डालना है, और भाव-बन्ध हैरागद्वेषादि के द्वारा कर्मों के साथ बंधना। यहाँ भावबन्ध का प्रसंग है। कर्मों का बन्ध होने से ही जीव नाना गतियों और योनियों में परिभ्रमण करता है। आठ कर्म : विशेष व्याख्याः –जीव का लक्षण उपयोग है। वह ज्ञान-दर्शनरूप है। ज्ञानोपयोग को रोकने (आवृत करने) वाले कर्म का नाम ज्ञानावरणकर्म है। जिस प्रकार सूर्य को मेघ आवृत कर देता है, इसी तरह यह कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को ढंक देता है॥१॥ प्रतीहार (द्वारपाल) जिस प्रकार राजा के दर्शन नहीं होने देता, उसी प्रकार आत्मा के दर्शन-उपयोग को जो ढंक देता है (प्रकट नहीं होने देता) उसका नाम दर्शनावरणकर्म है ॥२॥ जिस प्रकार मधलिप्त तलवार के चाटने से जीभ कट जाती है, साथ ही मधु का स्वाद भी आता है, उसी प्रकार जिस कर्म के द्वारा नीव को शारीरिक-मानसिक सुख और दुःख का अनुभव होता रहता है, वह वेदनीय कर्म है॥३॥ जो इस जीव को मदिरा के नशे की तरह मूढ (हेय-उपादेय के विवेक से विकल) कर देता है, वह मोहनीय कर्म है। इससे जीव पर-भाव को स्व-भाव मानकर परिणमन १. उत्तराध्ययन, प्रियदर्शिनीटीका भा. ४. पृ. ५७६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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