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उत्तराध्ययनसूत्र
अथवा कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। प्रस्तुत दूसरी, तीसरी गाथा से स्पष्ट हो जाता है कि प्राणिवधादि से विरत, पांचसमिति-त्रिगुप्ति से युक्त, चार कषाय, तीन शल्य एवं तीन प्रकार के गौरव से रहित होकर साधक जब अनाश्रव हो जाता है, अर्थात् नये कर्मों के आगमन को रोक देता है, तभी वह पूर्वसंचित (पहले बंधे हुए) पाप कर्मों को तप के द्वारा क्षीण करने में समर्थ होता है। यही तपोमार्ग है, पुरातन कर्मों को क्षय करने का। उदाहरणार्थ-जैसे किसी महासरोवर का जल पानी आने के मार्ग को रोकने, पहले से पानी को रेहट आदि साधनों से उलीच कर बाहर निकालने तथा सूर्य के ताप से सूख जाता है, इसी प्रकार पाप कर्मों के आश्रव को पूर्वोक्त पद्धति से रोकने पर तथा व्रत-प्रत्याख्यान आदि से पापकर्मों को निकाल देने एवं परीषहसहन आदि के ताप से उन्हें सुखा देने पर संयमी के पुराने (करोड़ों भवों में) संचित पापकर्म भी तप द्वारा क्षीण हो जाते हैं।' तप के भेद-प्रभेद
७. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा।
बाहिरो छव्विहो वुत्तो एवमब्भन्तरो तवो॥ [७] वह (पूर्वोक्त कर्मक्षयकारक) तप दो प्रकार का कहा गया है—बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप छह प्रकार का है, इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा गया है।
विवेचन–बाह्य तप : स्वरूप और प्रकार-जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रखता है, सर्वसाधारण जनता में जो तप नाम से प्रख्यात है, अथवा दूसरों को जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, जिसका सीधा प्रभाव शरीर पर पड़ता है, जो मोक्ष का बहिरंग कारण है, वह बाह्यतप कहलाता है।
भगवती आराधना में बाह्य तप का लक्षण इस प्रकार दिया है—बाह्य तप वह है, जिससे मन दुष्कृत (पाप) के प्रति उद्यत नहीं होता, जिससे आभ्यन्तर तप के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो और पूर्वगृहीत स्वाध्याय, व्रतादि योगों की जिससे हानि न हो। बाह्यतप६ प्रकार का है. जिसका आगे वर्णन किया जायेगा।
आभ्यन्तर तप : स्वरूप और प्रकार- जिनमें बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रहे, जो अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं, जिनमें अन्तरंग परिणामों की मुख्यता रहती हो, जो स्वयंवेद्य हो, जिनसे मन का नियमन होता हो , जो विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा ही तप रूप में स्वीकृत होते हैं और जो मुक्ति के अन्तरंग कारण हों, वे आभ्यन्तर तप हैं। १. (क) तापयति-अष्टप्रकारं कर्म दहतीति तपः।-आव. म. १ अ.
(ख) ताप्यन्ते रसादिधातवः कर्माण्यनेनेति तपः।-धर्म. अधि. ३ (ग) कर्मक्षयार्थं तप्यते इति तपः।-राजवा. ९/६/१७ (घ) उत्तरा. वृत्ति, अभिधान रा. कोष भा. ४, पृ. २१९९ (ङ) कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम्। -पद्मनन्दिपंचविशतिका १/९८ (च) तुलना कीजिए—'यथाऽग्निः संचितं तृणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शनाधर्जितं निर्दहतीति तप इति निरुच्यते।'
'देहेन्द्रियतापाद् वा॥' -राजवार्तिक ९/ २०-२१ (छ) "बारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि।
वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स॥" -कार्तिकेयानुप्रेक्षा १०२