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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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३६-आहार-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
आहार-पच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दइ। जीवियासंसप्प ओगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सइ।
[३६ प्र.] भन्ते ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[उ.] आहार के प्रत्याख्यान से जीव जीवन (जीने) की आशंसा (कामना) के प्रयत्न को विच्छिन्न कर देता है। जीवित रहने की आशंसा के प्रयत्न को छोड़ देने पर आहार के अभाव में भी वह क्लेश का अनुभव नहीं करता।
३७–कसाय पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
कसाय-पच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ। वीयरागभावपडिवन्ने वि यणं जीवे समसुहदुक्खे भवइ।
[३७ प्र.] भन्ते ! कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को क्या उपलब्धि होती है?
[उ.] कषाय के प्रत्याख्यान से वीतरागभाव प्राप्त होता है। वीतरागभाव को प्राप्त जीव सुख-दुःख में समभावी हो जाता है।
३८. जोग-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
जोग-पच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगो णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ।
[३८ प्र.] भंते ! योग के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
[उ.] योग (मन-वचन काया से सम्बन्धित व्यापारों) के प्रत्याख्यान से जीव अयोगत्व को प्राप्त होता है। अयोगी जीव नए कर्मों का बन्ध नहीं करता। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
३९. सरीर-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयह?
सरीर-पच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ। सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ।।
[३९ प्र.] भंते ! शरीर के प्रत्याख्यान से जीव को क्या लाभ होता है ?
[उ.] शरीर के प्रत्याख्यान से जीव सिद्धों के अतिशय गुणों का सम्पादन कर लेता है। सिद्धों के अतिशय गुणों से सम्पन्न जीव लोक के अग्रभाग में पहुँच कर परमसुखी हो जाता है।
४०. सहाय-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
सहाय-पच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ। एगीभावभूए वियणंजीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसदे, अप्पझंझे; अप्पकलहे, अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे, संजमबहुले, संवरबहुले, समाहिए यावि भवइ।
[४० प्र.] भंते ! सहाय के प्रत्याख्यान से जीव को क्या लाभ होता है?
[उ.] सहाय (सहायक) के प्रत्याख्यान से जीव एकीभाव को प्राप्त होता है। एकीभाव को प्राप्त साधक एकाग्रता की भावना करता हुआ विग्रहकारी शब्द, वाक्कलह (झंझट), कलह(झगड़ा-टंटा), कषाय