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उत्तराध्ययन/ ५६
आचार्य वट्टर ने मूलाचार में १७० और पं. आशाधर जी ने १७१ अनगारधर्मामृत में शील आराधना में विघ्न समुत्पन्न करने वाले दश कारण बताये हैं। उन सभी कारणों में प्रायः उत्तराध्ययन में निर्दिष्ट कारण ही हैं। कुछ कारण पृथक् भी हैं। इन सभी कारणों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि जैन आगमसाहित्य तथा उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में जिस क्रम से निरूपण हुआ है, वैसा श्रृंखलाबद्ध निरूपण वेद और उपनिषदों में नहीं हुआ। दक्षस्मृति में १०१ कहा गया है— मैथुन के स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, देखना, गुह्य भाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया ये आठ प्रकार बताये गये हैं—इनसे अलग रहकर ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए।
त्रिपिटक साहित्य में ब्रह्मचर्य - गुप्तियों का जैन साहित्य की तरह व्यवस्थित क्रम प्राप्त नहीं है किन्तु कुछ छुटपुट नियम प्राप्त होते हैं उन नियमों में मुख्य भावना है— अशुचि भावना! अशुचि भावना से शरीर की आसक्ति दूर की जाती है। इसे ही कायगता स्मृति कहा है।१७३
श्रेष्ठश्रमण और पापश्रमण में अन्तर
सत्तरहवें अध्ययन में पाप श्रमण के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों का सम्यक् प्रकार से पालन करता है वह श्रेष्ठ श्रमण है। श्रामण्य का आधार आचार है आचार में मुख्य अहिंसा है अहिंसा का अर्थ है— सभी जीवों के प्रति संयम करना जो श्रमणाचार का । सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करता और जो अकर्त्तव्य कार्यों का आचरण करता है, वह पाप- श्रमण है। जो विवेकभ्रष्ट भ्रमण है, वह सारा समय खाने-पीने और सोने में व्यतीत कर देता है न समय पर प्रतिलेखन करता है और न समय पर स्वाध्याय- ध्यान आदि ही । समय पर सेवा-शुश्रूषा भी नहीं करता है। वह पाप- श्रमण है। श्रमण का अर्थ केवल वेष-परिवर्तन करना नहीं, जीवन परिवर्तन करना है। जिसका जीवन परिवर्तित — आत्मनिष्ठअध्यात्मनिरत हो जाता है, भगवान् महावीर ने उसे श्रेष्ठ भ्रमण की अभिधा से अभिहित किया है।
प्रस्तुत अध्ययन में पापश्रमण के जीवन का शब्दचित्र संक्षेप में प्रतिपादित है ।
गागर में सागर
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अठारहवें अध्ययन में राजा संजय का वर्णन है। एक बार राजा संजय शिकार के लिए केशर उद्यान में गया। वहाँ उसने संत्रस्त मृगों को मारा। इधर उधर निहारते हुए उसकी दृष्टि मुनि गर्दभाल पर गिरी। वे ध्यानमुद्रा में थे। उन्हें देखकर राजा संजय भयभीत हुआ। वह सोचने लगा- मैंने मुनि की आशातना की है। मुनि से क्षमायाचना की। मुनि ने जीवन की अस्थिरता, पारिवारिक जनों की असारता और कर्म परिणामों की निश्चितता का प्रतिपादन किया, जिससे राजा के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और वह मुनि बन गया। एक बार एक क्षत्रिय मुनि ने संजय मुनि से पूछा—आप कौन हैं, आपका नाम और गोत्र क्या है, किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो ? कृपा 'करके बताइये। मुनि संजय ने संक्षेप में उत्तर दिया । उत्तर सुनकर मुनि बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने मुनि संजय को जैन प्रवचन में सुदृढ करने के लिए अनेक महापुरुषों के उदाहरण दिये। इस अध्ययन में अनेक
१०१. अनागारधर्मामृत ४/५१
१७०. मूलाचार ११ / १३, १४ १७२. ब्रह्मचर्यं सदा रक्षेदष्टधा मैथुनं पृथक् । स्मरणं कीर्त्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ॥
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिमनिष्पतिरेव च। एतन्मैथुनमा प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
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न ध्यातव्यं न वक्तव्यं न कर्त्तव्यं कदाचन। एतैः सर्वैः सुसम्पन्नो यतिर्भवति नेतरः ॥ दक्षस्मृति ७/३१-३३ १७३. (क) सुत्तनिपात १ / ११ (ख) विशुद्धिमग्ग (प्रथम भाग) परिच्छेद ८, पृष्ठ २१८ - २६०
(ग) दीघनिकाय (महापरिनि २/३