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________________ ३९६ उत्तराध्ययनसूत्र पच्चीसवाँ अध्ययन यजीय अध्ययन-सार * प्रस्तुत पच्चीसवें अध्ययन का नाम 'यज्ञीय' (जन्नइज्ज) है। इसका मुख्य प्रतिपादित विषय यज्ञ से सम्बन्धित है। * भगवान् महावीर के युग में बाह्य हिंसाप्रधान एवं लौकिककामनामूलक अथवा स्वर्गादि कामनाओं से प्रेरित यज्ञों की धूम थी। यज्ञ का प्रधान संचालक यायाजी (याज्ञिक) वेदों का पाठक ब्राह्मण हुआ करता था। ये यज्ञ ब्राह्मणसंस्कृति-परम्परागत होते थे। * श्रमणसंस्कृति तप, संयम, समत्व आदि में यतना करने को, त्यागप्रधान नियमों को यज्ञ कहती थी। ऐसे यज्ञ को भावयज्ञ कहा जाता कहा जाता था। ब्राह्मणसंस्कृति के प्रतिनिधि को ब्राह्मण और श्रमणसंस्कृति के प्रतिनिधि को श्रमण कहते थे। ब्राह्मणसंस्कृति उस समय कर्मकाण्ड पर जोर देती थी, जब कि श्रमणसंस्कृति सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप, त्याग, संयम आदि पर। श्रमणों के ज्ञान-दर्शन चारित्र के कारण श्रमणसंस्कृति का प्रभाव साधारण जनता पर सीधा पड़ता था। * वाराणसी में जयघोष और विजयघोष दो भाई थे, जो काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। वे वेदों के ज्ञाता थे। एक दिन जयघोष गंगातट पर स्नानार्थ गया, वहाँ उसने देखा कि एक सर्प मेंढक को निगल रहा है और कुरर पक्षी सर्प को। इस दृश्य का जयघोष के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसे संसार से विरक्ति हो गई, फलतः उसने एक जैन श्रमण से दीक्षा ले ली। * एक बार श्रमण जयघोष विहार करता हुआ वाराणसी आ पहुँचा । भिक्षाटन करते-करते वह अनायास ही विजयघोष के यज्ञमण्डप में पहुँच गया, जहाँ विजयघोष यज्ञ कर रहा था। विजयघोष ने जयघोष श्रमण को नहीं पहचाना। उसने तिरस्कारपूर्वक भिक्षा देने से मना कर दिया। समभावी जयघोष को इससे कोई दुःख न हुआ। उसने विजयघोष को बोध देने की दृष्टि से कहा—तुम जो यज्ञ कर रहे हो, वह सच्चा नहीं है। अन्ततः विजयघोष जयघोष की युक्तियों के आगे निरुत्तर हो गया। फिर जिज्ञासावश विजयघोष के पूछने पर जयघोष ने वेद, ब्राह्मण, यज्ञ आदि के लक्षण बताए, जो यहाँ कई गाथाओं में वर्णित हैं । इस समाधान से विजयघोष अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ। उसे सांसारिक कामभोगों से विरक्ति हो गई और वह श्रमणधर्म में प्रव्रजित हो गया। श्रमणधर्म की सम्यक् साधना करके जयघोष और विजयघोष दोनों ही अन्त में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। IN
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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