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________________ इक्कीसवाँ अध्ययन समुद्रपालीय श्रुतज्ञान से यथार्थ क्रियाकलाप के ज्ञान से उपगत—युक्त । (२) अथवा सन्नानाज्ञानोपगत पर्यायधर्म, अभीष्ट तत्त्वावबोध, इत्यादि अनेक प्रकार ( अनेकरूप) शुभ ज्ञानों से उपगत अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा— शीतोष्णादि परीषह आएँ, उस समय किसी प्रकार का विलाप या प्रलाप किये विना, कर्कश शब्द कहे विना, अथवा निमित्त को कोसे विना या किसी गाली या अपशब्द कहे विना सहन करे । २ युक्त । १ २४. दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के । तरित्ता समुद्दं व महाभवोघं समुद्दपाले अपुणागमं गए ॥ आयगुत्ते — आत्मगुप्त — कछुए की तरह अपने समस्त अंगों को सिकोड़ कर परीषह सहन करे । प्रस्तुत गाथा (१९) में परीषहसहन करने का उपाय बताया गया है। ३ उपसहार ३४१ संगत्याग, — - त्ति बेमि ।। [२४] समुद्रपाली मुनि पुण्य और पाप ( शुभ - अशुभ) दोनों ही प्रकार के कर्मों का क्षय करके, (संयम में) निरंगन ( - निश्चल) और सब प्रकार से विमुक्त होकर समुद्र के समान विशाल संसार - प्रवाह (महाभवौघ) को तैर कर अपुनरागमस्थान ( - मोक्ष) में गए। — ऐसा मैं कहता हूँ । ॥ समुद्रपालीय : इक्कीसवाँ अध्ययन समाप्त ॥ विवेचन — दुविहं— दो भेद वाला —घाती कर्म और अघाती कर्म, इस प्रकार द्विविध, अथवा पुण्यपाप - शुभाशुभ रूप द्विविध कर्म । निरंगणे - ( १ ) निरंगन—संयम के प्रति निश्चल — शैलेशी अवस्था प्राप्त । अथवा (२) निरंजन — कर्मसंगरहित । समुद्दे व महाभवोहं— समुद्र के समान अतिदुस्तर, महान्, भवौघ देवादिभवसमूह को तैर कर । ४ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ ३. 'आत्मना गुप्तः आत्मगुप्तः - कूर्मवत् संकुचितसर्वांग: । ' ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७-४८८ १. सद्ज्ञानमिह श्रुतज्ञानं, तेन ज्ञानं - अवगमः, प्रक्रमात् यथावत् क्रियाकलापस्य तेनोपगतो—युक्तो, सद्ज्ञानज्ञानोपगतः, सन्ति शोभनानि नानेत्यनेकरूपाणि ज्ञानानि संगत्याग-पर्यायधर्माभिरुचितत्त्वावबोधात्मकानि तैरुपगत: सन्नानाज्ञानोपगतः । - • बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७ • वही, पत्र ४८६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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