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वीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय
५९. ऊससिय— रोमकूवो काऊण य पयाहिणं । अभिवन्दिऊण सिरसा अहयाओ नराहिवो ॥
[५९] राजा (नराधिप) के रोमकूप ( हर्ष से) उच्छ्वसित (उल्लसित) हो गए। वह मुनि की प्रदक्षिणा करके और नतमस्तक होकर वन्दना करके लौट गया।
विवेचन - लाभा सुद्धा - सुन्दर वर्ण, रूप आदि की प्राप्तिरूप लाभ, अथवा धर्मविशेष की उपलब्धियों का अच्छा लाभ कमाया, क्योंकि ये उत्तरोत्तर गुणवृद्धि के कारण हैं।
अणुसासिउं— मैं आपसे शिक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।
रायसीहो, अणगारसींह — राजाओं में अतिपराक्रमी होने से श्रेणिक को शास्त्रकार ने राज सिंह कहा है तथा कर्मविदारण करने में अतीव पराक्रमी (शूरवीर) होने से मुनि को अनगार - सिंह कहा है । १' उपसंहार
६०. इयरो वि गुणसमिद्धो तिगुत्तिगुत्तो तिदण्डविरओ य । विहग इव विप्पक्को विहरइ वसुहं विगयमोहो ॥ -
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॥ महानिर्ग्रन्थीय : वीसवाँ अध्ययन समाप्त ॥
[६०] और वह मुनि भी (मुनि के २७) गुणों से समृद्ध, तीन गुप्तियों से गुप्त, तीन दण्डों से विरत पक्षी की तरह प्रतिबन्धमुक्त तथा मोहरहित होकर भूमण्डल पर विचरण करने लगे ।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८०-४८१
त्ति बेमि ॥
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ऐसा मैं कहता हूँ ।
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