SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययनसूत्र - महानिन्थीय - कोई भी मेरी वेदना को नहीं मिटा सका। मुझे कोई भी उससे न बचा सका, यही मेरी अनाथता थी। एक दिन रोग-शय्या पर पड़े-पड़े मैंने निर्णय किया कि 'धन, परिवार, वैद्य आदि सब शरण मिथ्या हैं। मुझे इन आश्रयों का भरोसा छोड़े बिना शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। मुझे श्रमणधर्म का एकमात्र आश्रय लेकर दु:ख के बीजों-कर्मों को निर्मूल कर देना चाहिए। यदि इस पीड़ा से मुक्त हो गया तो मैं प्रभात होते ही निर्ग्रन्थ मुनि बन जाऊँगा।' इस दृढ़ संकल्प के साथ मैं सो गया। धीरे-धीरे मेरा रोग स्वतः शान्त हो गया। सूर्योदय होते-होते मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया। अतः प्रात:काल ही मैंने अपने समस्त परिजनों के समक्ष अपना संकल्प दोहराया और उनसे अनुमति लेकर मैं निर्ग्रन्थ मुनि बन गया। राजन्! इस प्रकार मैं अनाथ से सनाथ हो गया। आज मैं स्वयं अपना नाथ हूँ, क्योंकि मेरी इन्द्रियों, मन, आत्मा आदि पर मेरा अनुशासन है, मैं स्वेच्छा से विधिपूर्वक श्रमणधर्म का पालन करता हूँ। मैं अब त्रस-स्थावर समस्त प्राणियों का भी नाथ (त्राता) बन गया।' मुनि ने अनाथता के और भी लक्षण बताए, जैसे कि -निर्ग्रन्थधर्म को पाकर उसके पालन से कतराना, महाव्रतों को अंगीकार कर उनका सम्यक् पालन न करना, इन्द्रियनिग्रह न करना, रसलोलुपता रखना, रागद्वेषादि बन्धनों का उच्छेद न करना, पंचसमिति-त्रिगुप्ति का उपयोग पूर्वक पालन न करना, अहिंसादि व्रतों, नियमों एवं तपस्या से भ्रष्ट हो जाना, मस्तक मुंडा कर भी साधुधर्म का आचरण न करना, केवल वेष एवं चिह्न के सहारे जीविका चलाना, लक्षण, स्वप्न, निमित्त, कौतुक, वैद्यक आदि विद्याओं का प्रयोग करके जीविका चलाना, अनेषणीय, अप्रासुक आहारादि का उपभोग करना, संयमी एवं ब्रह्मचारी न होते हुए स्वयं को संयमी एवं ब्रह्मचारी बताना आदि। इन अनाथताओं का दुष्परिणाम भी मुनि ने साथ-साथ बता दिया। मुनि की अनुभवपूत वाणी सुनकर राजा अत्यन्त सन्तुष्ट एवं प्रभावित हुआ। वह सनाथ-अनाथ का रहस्य समझ गया। उसने स्वीकार किया कि वास्तव में मैं अनाथ हूँ। और तब श्रद्धापूर्वक मुनि के चरणों में वन्दना की, सारा राजपरिवार धर्म में अनुरक्त हो गया। राजा ने मुनि से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी। पुनः वन्दना, स्तुति, भक्ति एवं प्रदक्षिणा करके मगधेश श्रेणिक लौट गया। प्रस्तुत अध्ययन जीवन के एक महत्त्वपूर्ण तथ्य को अनावृत्त करता है कि आत्मा स्वयं अनाथ या सनाथ हो जाता है। बाह्य ऐश्वर्य, विभूति, धन सम्पत्ति से, या मुनि का उजला वेष या चिह्न कितने ही धारण कर लेने से, अथवा मन्त्र, तन्त्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि विद्याओं के प्रयोग से कोई भी व्यक्ति सनाथ नहीं हो जाता। बाह्य वैभवादि सब कुछ पाकर भी मनुष्य आत्मानुशासन से यदि रिक्त है तो अनाथ है। 00
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy