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________________ २४७ सोलहवाँ अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान _ [उ.] उत्तर में आचार्य कहते हैं—जो परिमाण से अधिक खाता-पीता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा अथवा विचिकित्सा उत्पन्न होती है, या ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ मात्रा से अधिक पान-भोजन का सेवन न करे। विवेचन—अइमायाए : व्याख्या मात्रा का अर्थ है-परिमाण । भोजन का जो परिमाण है, उसका उल्लंघन करना अतिमात्रा है। प्राचीन परम्परानुसार पुरुष (साधु) के भोजन का परिमाण है—बत्तीस कौर और स्त्री (साध्वी) के भोजन का परिमाण अट्ठाईस कौर है, इससे अधिक भोजन-पान का सेवन करना अतिमात्रा में भोजन-पान है। नौवाँ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान ११. नो विभूसाणुवाई, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे? आयरियाह-विभूसावत्तिए, विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स अभिलसणिजे हवइ। तओ णं तस्स इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिजा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपनत्ताओ वा धम्माओ भंसेजा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवाई सिया। [११] जो विभूषा नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों? [उ.] इस प्रकार पूछने पर आचार्य कहते हैं—जिसकी मनोवृत्ति विभूषा करने की होती है, जो शरीर को विभूषित (सुसज्जित) किये रहता है, वह स्त्रियों की अभिलाषा का पात्र बन जाता है। इसके पश्चात् स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा अथवा विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है, अथवा ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, अथवा उसे उन्माद पैदा हो जाता है, या उसे दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ विभूषानुपाती न बने। विवेचन-विभूसाणुवाई—शरीर को स्नान करके सुसंस्कृत करना, तेल-फुलेल लगाना, सुन्दर वस्त्रादि उपकरणों से सुसज्जित करना, केशप्रसाधन करना आदि विभूषा है । इस प्रकार से शरीर-संस्कारकर्ताशरीर को सजाने वाला—विभूषानुपाती है। विभूसावत्तिए : अर्थ—जिसका स्वभाव विभूषा करने का है, वह विभूषावृत्तिक है। विभूसियसरीरे-स्नान, अंजन, तेल-फुलेल आदि से शरीर को जो विभूषित–सुसज्जित करता है, वह विभूषितशरीर है। १. "बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स, महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला॥" -बृहवृत्ति, पत्र ४२६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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