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सोलहवाँ अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान
[३] स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य-समाधि के ये दस समाधिस्थान बतलाए हैं, जिन्हें सुन कर, जिनका अर्थत: निश्चय करके भिक्षु संयम, संवर तथा समाधि से उत्तरोत्तर अधिकाधिक अभ्यस्त हो, मनवचन-काया की गुप्तियों से गुप्त रहे, इन्द्रियों को उनके विषयों में प्रवृत्त होने से बचाए, ब्रह्मचर्य को नौ गुप्तियों के माध्यम से सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त हो कर विहार करे।
(उन दस समाधिस्थानों में से) प्रथम समाधिस्थान इस प्रकार है-जो विविक्त—एकान्त शयन और आसन का सेवन करता है वह निर्ग्रन्थ है। (अर्थात्) जो स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त (आकीर्ण) शयन और आसन का सेवन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है।
[प्र.] ऐसा क्यों?
[उ.] ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं—जो स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का सेवन करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा उसके ब्रह्मचर्य (संयम) का विनाश हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, या कोई दीर्घकालिक (लम्बे समय का) रोग और आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए स्त्री-पशु-नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का जो साधु सेवन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है, (ऐसा कहा गया)।
विवेचन—ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानों की सुदृढता–साधु को ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानों की सुदृढता के लिए यहाँ नवसूत्री बताई गई है-(१) इन स्थानों का भलीभांति श्रवण, (२) अर्थ पर विचार, (३,४,५) संयम का, संवर का और समाधि का अधिकाधिक अभ्यास, (६) तीन गुप्तियों से मन, वाणी एवं शरीर का गोपन, (७) इन्द्रियों की विषयों से रक्षा, (८) नवविधगुप्तियों से ब्रह्मचर्य की सुरक्षा और (९) सदैव अप्रमत्तअप्रतिबद्ध विहार।
प्रथम समाधिस्थान—विविक्त शयनासनसेवन—विविक्त : अर्थात्-स्त्री (दैवी, मानुषी या तिर्यंची), पशु (गाय भैंस, सांड, भैंसा, बकरा-बकरी आदि) और पण्डक नपुंसक से संसक्त अर्थात् संसर्ग वाला न हो। यहाँ प्रथम विधिमुख से कथन है, तत्पश्चात् निषेधमुख से कथन है, जिससे विविक्त का तात्पर्य और स्पष्ट हो जाता है।
सयणासणाई : शयन और आसन का अर्थ-शयन के तीन अर्थ शास्त्रीय दृष्टि से-(१) शय्या, बिछौना, संस्तारक, (२) सोने के लिए पट्टा आदि, (३) उपलक्षण से वसति (उपाश्रय) को भी शय्या कहते हैं। आसन का अर्थ है—जिस पर बैठा जाए, जैसे-चौकी, बाजोट (पादपीठ) या केवल आसन, पादप्रोञ्छन आदि। __नो इत्थी० : वाक्य का आशय—जिस निवासस्थान में स्त्री-पशु-नपुंसक का निवास न हो या दिन या रात्रि में अकेली स्त्री आदि का संसर्ग न हो अथवा जिस पट्टे, शय्या, आसन, चौकी आदि पर साधु बैठा या सोया हो, उसी पर स्त्री आदि बैठे या सोए न हों। विविक्त शयनासन न होने से ७ बड़ी हानियां-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) ब्रह्मचर्य-भंग, (५) उन्माद, (६) दीर्घकालिक रोग और आतंक, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२३