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उत्तराध्ययन सूत्र इषुकारीय पुरोहितदम्पती को प्रसन्नता हुई। भविष्यवाणी के अनुसार वे दोनों देव पुरोहितपत्नी यशा के गर्भ में आए। दीक्षा ग्रहण कर लेने के भय से पुरोहितदम्पती नगर को छोड़ कर व्रजगाँव में आ बसे। यहीं पुरोहितपत्नी यशा ने दो सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया। कुछ बड़े हुए। माता-पिता यह सोचकर कि कहीं ये दीक्षा न ले लें, अल्पवयस्क पुत्रों के मन में समय-समय पर साधुओं के प्रति घृणा
और भय की भावना पैदा करते रहते थे। वे समझाते रहते-देखो, बच्चो ! साधुओं के पास कभी मत जाना। ये छोटे-छोटे बच्चों को उठा कर ले जाते हैं और उन्हें मार कर उनका मांस खा जाते हैं। उनसे बात भी मत करना। माता-पिता की इस शिक्षा के फलस्वरूप दोनों बालक साधुओं से डरते रहते, उनके पास तक नहीं फटकते थे। एक बार दोनों बालक खेलते-खेलते गाँव से बहुत दूर निकल गए। अचानक उसी रास्ते से उन्होंने कुछ साधुओं को अपनी ओर आते देखा तो वे घबरा गए। अब क्या करें! बचने का कोई उपाय नहीं था। अत: झटपट वे पास के ही एक सघन वट वृक्ष पर चढ़ गए और छिप कर चुपचाप देखने लगे कि ये साधु क्या करते हैं? संयोगवश साधु भी उसी वृक्ष के नीचे आए। इधर-उधर देखा-भाला, रजोहरण से चींटी आदि जीवों को धीरे-से एक ओर किया और बड़ी यतना के साथ बड़ की सघन छाया में बैठ कर झोली में से पात्र निकाले और एक मंडली में भोजन करने लगे। बच्चों ने देखा कि उनके पात्रों में मांस जैसी कोई वस्तु नहीं है। सादा सात्त्विक भोजन है, साथ ही उनका दयाशील व्यवहार तथा करुणाद्रवित वार्तालाप देखा-सुना तो उनका भय कम हुआ। बालकों के कोमल निर्दोष मानस पर धुंधली-सी स्मृति जागी-ऐसे साधु तो हमने पहले भी कहीं देखे हैं, ये अपरिचित नहीं हैं।' ऊहापोह करते-करते कुछ ही क्षणों में उन्हें जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वजन्म की स्मृति स्पष्ट हो गई। उनका भय सर्वथा मिट गया। वे दोनों पेड़ से नीचे उतरे और साधुओं के पास आकर दोनों ने श्रद्धापूर्वक वन्दना
की। साधुओं ने उन्हें प्रतिबोध दिया। दोनों बालकों ने संसार से विरक्त होकर, मुनि बनने का निर्णय किया। वहाँ से वे सीधे माता-पिता के पास आए और अपना निर्णय बतलाया। भृगु पुरोहित ने उन्हें ब्राह्मणपरम्परा के अनुसार बहुत कुछ समझाने और साधु बनने से रोकने का प्रयत्न किया, मगर सब व्यर्थ! उनके मन पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ सका, बल्कि दोनों पुत्रों की युक्तिसंगत बातों से भृगु पुरोहित भी दीक्षा लेने को तत्पर हो गया। आगे की कथा मूलपाठ में
ही वर्णित है। * कुल मिलाकर इस अध्ययन से पुनर्जन्मवाद की पुष्टि होती है तथा ब्राह्मण-श्रमण परम्परा की
मौलिक मान्यताओं तथा तत्कालीन सामाजिक परम्परा का स्पष्ट चित्र सामने आ जाता है।
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१. उत्तरा. नियुक्ति गा. ३६३ से ३७३