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बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय
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[२२] ये वही उग्रतपस्वी हैं, महात्मा हैं, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा उस समय मुझे दिये जाने पर भी नहीं चाहा ।
२३. महाजसो एस महाणुभागो घोरव्वओ घोरपरक्कमो य । मा इयं हीलह अहीलणिज्जं मा सव्वे तेएण भे निद्दहेज्जा ॥
[२३] ये ऋषि महायशस्वी हैं, महानुभाग हैं, घोरव्रती हैं और घोरपराक्रमी हैं। ये अवहेलना (अवज्ञा ) के योग्य नहीं हैं, अतः इनकी अवहेलना मत करो। ऐसा न हो कि कहीं यह तुम सबको अपने तेज से भस्म कर दें।
विवेचन - कोसलियस्स - कोशला नगरी के राजा कौशलिक की। 'उग्गतवो' आदि विशिष्ट शब्दों के अर्थ – उग्गतवो- कर्मशत्रुओं के प्रति उत्कट दारुण अनशनादि तप करने वाला उत्कटतपस्वी । महप्पा - महात्मा - विशिष्ट वीर्य्योल्लास के कारण जिसकी आत्मा प्रशस्त - महान् है, वह । महाजसो - जिसकी कीर्ति असीम है - त्रिभुवन में व्याप्त है । महाणुभागो - जिसका अनुभाव - सामर्थ्य प्रभाव महान् है, अर्थात् - जिसमें महान् शापानुग्रह-सामर्थ्य है अथवा जिसे अचिन्त्य शक्ति प्राप्त है । घोरव्वओ - अत्यन्त दुर्धर महाव्रतों को जो धारण किये हुए है। घोरपरक्कमो - जिसमें कषायादि विजय के प्रति अपार सामर्थ्य है।
यक्ष द्वारा कुमारों की दुर्दशा और भद्रा द्वारा पुनः प्रबोध
२४. एयाइं तीसे वयणाइ सोच्चा पत्तीइ भद्दाइ सुहासियाई । इसिस्स वेयावडियट्टयाए जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति ॥
[२४] (रुद्रदेव पुरोहित की ) पत्नी उस भद्रा के सुभाषित वचनों को सुनकर तपस्वी ऋषि की वैयावृत्य (सेवा) के लिए ( उपस्थित) यक्षों ने उन ब्राह्मण कुमारों को भूमि पर गिरा दिया (अथवा मुनि को पीटने से रोक दिया) ।
२५. ते घोररूवा ठिय अन्तलिक्खे असुरा तहिं तं जणं तालयन्ति । ते भिन्नदेहे रुहिरं वमन्ते पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो ॥
[२५] (फिर भी वे नहीं माने तो) वे भयंकर रूप वाले असुर (यक्ष) आकाश में स्थित हो कर वहाँ (खड़े हुए) उन कुमारों को मारने लगे । कुमारों के शरीरों को क्षत-विक्षत होते एवं खून की उल्टी करते देखकर भद्रा ने पुन: कहा
२६. गिरिं नहिं खणह अयं दन्तेहिं खायह ।
जायतेयं पाएहिं हह जे भिक्खुं अवमन्नह ॥
[२६] तुम (तपस्वी) भिक्षु की जो अवज्ञा कर रहे हो सो मानो नखों से पर्वत खोद रहे हो, दांतों से लोहा चबा रहे हो और पैरों से अग्नि को रौंद रहे हो ।
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(क) महाणुभागो - महान् - भागो - अचिन्त्यशक्तिः यस्य स महाभागो महप्पभावो त्ति । - विशेषा. भाष्य १०६३ (ख) अणुभावोणाम शापानुग्रहसामर्थ्यं । - उत्तरा चूर्णि पृ. २०८
(ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६५