________________
१४४
उत्तराध्ययनसूत्र
[४९] सम्पूर्ण पृथ्वी, शाली धान्य, जौ तथा दूसरे धान्य एवं समस्त पशुओं सहित (समग्र) स्वर्ण, ये सब वस्तुएँ एक की भी इच्छा को परिपूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं - यह जान कर विद्वान् साधक तपश्चरण (इच्छानिरोध) करे।
विवेचन - इन्द्रोक्त हेतु और कारण - 'आप अभी मुनि-धर्मानुष्ठान करने योग्य नहीं बने, क्योंकि आप अभी तक आकांक्षायुक्त हैं। आपने अभी तक आकांक्षायोग्य स्वर्णादि वस्तुएँ पूर्णतया एकत्रित नहीं की। इन सब वस्तुओं की वृद्धि हो जाने से, इन सबकी आकांक्षा एवं गृद्धि शान्त एवं तृप्त हो जाएगी; तब आपका मन प्रव्रज्यापालन में निराकुलतापूर्वक लगा रहेगा। अतः जब तक व्यक्ति आकांक्षायुक्त होता है, तब तक वह धर्मानुष्ठानयोग्य नहीं होता; जैसे – मम्मण श्रेष्ठी; यह हेतु है, हिरण्यादि की वृद्धि से आकांक्षापूर्ति करने के बाद ही आप मुनिधर्मानुष्ठान के योग्य बनेंगे, यह कारण है।
राजर्षि द्वारा समाधान का निष्कर्ष - संतोष ही निराकांक्षता में हेतु है, हिरण्यादि की वृद्धि हेतु नहीं है। यहाँ साकांक्षत्व हेतु असिद्ध है। आकांक्षणीय वस्तुओं की परिपूर्ति न होने पर भी यदि आत्मा में संतोष है तो उससे आकांक्षणीय वस्तुओं की आकांक्षा ही जीव को नहीं रहती और इच्छाओं का निरोध एवं निःस्पृह (निराकांक्षा-) वृत्ति द्वादशविध तप एवं संयम के आचरण से जागती है। इसलिए जब मुझे तपश्चरण से संतोष प्राप्त हो चुका है, तब तद्विषयक आकांक्षा न होने से उनके बढ़ाने आदि की बात कहना और उन वस्तुओं की वृद्धि न होने से मुनिधर्मानुष्ठान के अयोग्य बताना युक्तिविरुद्ध है।
हिरण्णं सुवण्णं-हिरण्य सुवर्ण : तीन अर्थ- (१) हिरण्य – चांदी, सुवर्ण – सोना। (२) सुवर्ण-हिरण्य – शोभन (सुन्दर) वर्ण का सोना। (३) हिरण्य का अर्थ घड़ा हुआ सोना और सुवर्ण का अर्थ बिना घड़ा हुआ सोना।
इइ विज्जा : दो रूप : दो अर्थ - (१) इति विदित्वा - ऐसा जानकर, (२) इति विद्वान् – इस कारण से विद्वान् साधक। दशम प्रश्नोत्तर : प्राप्त कामभोगों को छोड़कर अप्राप्त को पाने की इच्छा के संबंध में
५०. एयमझें निसामित्ता हेउकारण-चोइओ।
तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-।। [५०] (राजर्षि के मुख से) इस सत्य को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से यह कहा१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ (ख) उत्तराध्ययन, प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४३९, ४४० २. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३१६ (ख) उत्तराध्ययन, प्रियदर्शिनी टीका, भा. २, पृ. ४४३ ३. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १८५ : हिरण्यं - रजतं, शोभनवर्ण-सुवर्णम् ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ : हिरण्यं-सुवर्ण - सुवर्णं शोभनवर्ण विशिष्टवर्णिकमित्यर्थः। यद्वा - हिरण्यं -
घटितस्वर्णमितरस्तु सुवर्णम्। (ग) सुखबोधा, पत्र ४१५ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ : 'इति – इत्येतत्श्लोकद्वयोक्तं विदित्वा, यद्वा - इति - अस्माद्धेतोः, विद्वान् – पण्डितः।'