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उत्तराध्ययनसूत्र
नमिप्रव्रज्या जाने पर विदेह राज्य का राजा बना। विदेहराज्य में दो नमि हुए हैं, दोनों अपना-अपना राज्य त्याग करके अनगार बने थे। एक इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ हुए, और दूसरे प्रत्येकबुद्ध नमि राजर्षि।१ ___एक बार नमि राजा के शरीर में दुःसह दाहज्वर उत्पन्न हुआ। घोर पीड़ा रही। छह महीने तक उपचार चला। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। एक वैद्य ने चन्दन का लेप शरीर पर लगाने के लिए कहा। रानियाँ चन्दन घिसने लगीं। चन्दन घिसते समय हाथों में पहने हुए कंकणों के परस्पर टकराने से आवाज हुई। वेदना से व्याकुल नमिराज कंकणों की आवाज सह नहीं सके। रानियों ने जाना तो सौभाग्यचिह्रस्वरूप एक-एक कंकण रख कर शेष सभी उतार दिये। अब आवाज बन्द हो गई। अकेला कंकण कैसे आवाज करता?
राजा ने मन्त्री से पूछा 'कंकणों की आवाज क्यों नहीं सुनाई दे रही है?'
मन्त्री ने कहा-'स्वामिन् ! आपको कंकणों के टकराने से होने वाली ध्वनि अप्रिय लग रही थी, अतः रानियों ने सिर्फ एक-एक कंकण हाथ में रख कर शेष सभी उतार दिये हैं।'
राजा को इस घटना से नया प्रकाश मिला। इस घटना से राजा प्रतिबुद्ध हो गया। सोचा–जहाँ अनेक हैं, वहाँ संघर्ष, दुःख, पीड़ा और रागादि दोष हैं; जहाँ एक है, वहीं सच्ची सुख-शान्ति है । जहाँ शरीर, इन्द्रियाँ, मन और इससे आगे धन, परिवार, राज्य आदि परभावों की बेतुकी भीड़ है, वहीं दुःख है। जहाँ केवल एकत्वभाव, आत्मभाव है, वहाँ दुःख नहीं है। अतः जब तक मैं मोहवश स्त्रियों, खजानों, महल तथा गत-अश्वादि से एवं राजकीय भोगों से संबद्ध हूँ, तब तक मैं दुःखित हूँ। इन सब को छोड़ कर एकाकी होने पर ही सुखी हो सकूँगा। इस प्रकार राजा के मन में विवेकमूलक वैराग्यभाव जागा। उसने सर्व-संग परित्याग करके एकाकी होकर प्रव्रजित होने का दृढ़ संकल्प किया। दीक्षा ग्रहण करने की इस भावना से नमि राजा को गाढ़ निद्रा आई। उनका दाहज्वर शान्त हो गया। रात्रि में श्वेतगजारूढ़ होकर मेरुपर्वत पर चढ़ने का विशिष्ट स्वप्न देखा, जिस पर ऊहापोह करते-करते जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया। राजा ने जान लिया कि मैं पूर्वभव में शुद्ध संयम पालन के कारण उत्कृष्ट १७ सागरोपम वाले देवलोक में उत्पन्न हुआ, इस जन्म में राजा बना। अतः राजा ने पुत्र को राज्य सौंपा और सर्वोत्कृष्ट मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़ कर नगर से बाहर चले गये। _ अकस्मात् नमि राजा को यों राज्य-त्याग कर प्रव्रजित होने के समाचार स्वर्ग के देवों ने जाने तो वे विचार करने लगे-यह त्याग क्षणिक आवेश है या वास्तविक वैराग्यपूर्ण है? अतः उनकी प्रव्रज्या की परीक्षा लेने के लिए स्वयं देवेन्द्र ब्राह्मण का वेश बना कर नमि राजर्षि के पास आया और क्षात्रधर्म की याद दिलाते हुए लोकजीवन से सम्बन्धित १० प्रश्न उपस्थित किये, जिनका समाधान उन्होंने एकत्व१. दुन्निवि नमी विदेहा, रज्जाइं पयहिऊण पव्वइया।
एगो नमि तित्थयरो, एगो पत्तेयबुद्धो य॥ -उत्त० नियुक्ति, गा० २६७