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________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय नरक में तो एक अन्तर्मुहूर्त्त के बाद ही महावेदना का उदय होता है, जिसके कारण निरन्तर दुःख रहता है। कलिणा जिए— एक दाव में पराजित। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार जुए में दो प्रकार के दाव होते थे—कृतदाव और कलिदाव। 'कृत' जीत का दाव और 'कलि' हार का दाव माना जाता था । २ 4 'धुत्ते व' का अर्थ-वृत्तिकार इसका संस्कृत रूपान्तर धूर्त्त करके धूर्त्त इव — द्यूतकार इव (जुआरी की तरह) अर्थ करते हैं ।३ सकाममरण : स्वरूप, अधिकारी- अनधिकारी एवं सकाममरणोत्तर स्थिति १७. एवं अकाम-मरणं बालाणं तु पवेइयं । एत्तो काम-मरणं पण्डियाणं सुणेह मे ॥ [१७] यह (पूर्वोक्त) बाल जीवों के अकाम-मरण का प्ररूपण किया गया। अब यहाँ से आगे पण्डितों के सकाम-मरण ( का वर्णन) मुझ से सुनो। १८. मरणं पि सपुण्णाणं जहा मेयमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं संजयाणं वसीमओ ॥ ८५ [१८] जैसा कि मैंने परम्परा से सुना है—संयत, जितेन्द्रिय एवं पुण्यशाली आत्माओं का मरण अतिप्रसन्न (अनाकुलचित्त) और आघात - रहित होता है । १९. न इमं सव्वेसु भिक्खूसुन इमं सव्वेसुऽगारिसु । नाणा-सीला अगारत्था विसम-सीला य भिक्खुणो ॥ [१९] यह (सकाममरण) न तो सभी भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को, (क्योंकि) गृहस्थ नाना प्रकार के शीलों (व्रत - नियमों) से सम्पन्न होते हैं, जबकि बहुत से भिक्षु भी विषम ( विकृत - सनिदान सातिचार) शील वाले हाते हैं । २०. सन्ति एगेहिं भिक्खूहिं गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा ॥ [२०] कई भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं । किन्तु सभी गृहस्थों से (सर्वविरति चारित्रवान् शुद्धाचारी) साधुगण संयम में श्रेष्ठ हैं । २१. चीराजिणं नगिणिणं जडी-संघाडि-मुण्डिणं । एयाणि वि न तायन्ति दुस्सीलं परियागयं ॥ [२१] प्रव्रज्यापर्यायप्राप्त दुःशील (दुराचारी) साधु को चीर (वल्कल-वस्त्र) एवं अजिन (मृगछाला आदि चर्म - ) धारण, नग्नत्व, जटा धारण, संघाटी (चिथड़ों से बनी हुई गुदड़ी या उत्तरीय) - धारण, शिरोमुण्डन, ये सब (बाह्यवेष या बाह्याचार) भी दुर्गतिगमन से नहीं बचा सकते । १. उपपातात्संजातमौपपातिकम्, न तत्र गर्भव्युत्क्रान्तिरस्ति, येन गर्भकालान्तरितं तन्नरकदुःखं स्यात्, ते हि उत्पन्नमात्रा एव नरकवेदनाभिरभिभूयन्ते'' — उत्त० चूर्णि, पृ० १३५ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४८ (ख) सुखबोधा, पत्र १०५ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २४८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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