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अनुवादक की कलम से / १७
ब्राह्मण का सच्चा स्वरूप भी इसमें प्रकट किया गया है। सम्यक् आचार ही समाचारी है यह 'समाचारी' अध्ययन में प्रतिपादित है। संघ व्यवस्था के लिए अनुशासन आवश्यक है। यह 'खलुंकीय' नामक सत्ताइसवें अध्ययन में बताया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, ये मोक्ष के साधन हैं और इनकी परिपूर्णता ही मोक्ष है । उनतीसवें अध्ययन में सम्यक्त्वपराक्रम के सम्बन्ध में ७४ जिज्ञासाओं एवं समाधानों के द्वारा बहुत ही विस्तार के साथ अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है। तप एक दिव्य और भव्य रसायन है, जो साधक को परभाव से हटा कर स्वभाव में स्थिर करता है। तप का विशद विश्लेषण जैनदर्शन की अपनी देन है। विवेकयुक्त प्रवृत्ति चरणविधि है। उससे संयम परिपुष्ट होता है। अविवेकयुक्त प्रवृत्ति से संयम दूषित होता है । इसीलिये चरणविधि में विवेक पर बल दिया है। साधना में प्रमाद सबसे बड़ा बाधक है, इसलिये प्रमाद के स्थानों से सतत सावधान रहने हेतु 'अप्रमाद' अध्ययन में विस्तार में विश्लेषण किया गया है । वि-भाव से कर्म-बन्धन होता है और स्व-भाव से कर्म से मुक्ति मिलती है। कर्म की मूल प्रकृतियों का 'कर्मप्रकृति 'अध्ययन में वर्णन है। कषाययुक्त प्रवृत्ति कर्मबन्धन का कारण है। शुभाशुभ प्रवृत्ति का मूल आधार शुभ एवं अशुभ लेश्याएँ हैं । लेश्याओं का इस अध्ययन में विश्लेषण है। वीतरागता के लिए असंगता आवश्यक है। केवल गृह का परित्याग करने मात्र से कोई अनगार नहीं बनता। जीव और अजीव का जब तक भेदज्ञान नहीं होता, तब तक सम्यग्दर्शन का दिव्य आलोक जगमगा नहीं सकता, 'जीवाजीवविभक्ति' अध्ययन में इनके पृथक्करण का विस्तृत निरूपण है।
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इस प्रकार यह आगम विविध विषयों पर गहराई से चिन्तन प्रस्तुत करता है। विषय-विश्लेषण की दृष्टि से गागर में सागर भरने का महत्त्वपूर्ण कार्य इस आगम में हुआ है। संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण जैनदर्शन, जैनचिन्तन और जैनधर्म का सार इस एक आगम में आ गया है। इस आगम का यदि कोई गहराई से एवं सम्यक् प्रकार से परिशीलन कर ले तो उसे जैनदर्शन का भलीभाँति परिज्ञान हो सकता है।
उत्तराध्ययन की यह मौलिक विशेषता है कि अनेकानेक विषयों का संकलन इसमें हुआ है। दशवैकालिक और आचारांग में मुख्य रूप से श्रमणाचार का निरूपण है सूत्रकृतांग में दार्शनिक तत्त्वों की गहराई है। स्थानांग और समवायांग आगम कोशशैली में निर्मित होने से उनमें आत्मा, कर्म, इन्द्रिय, शरीर, भूगोल, खगोल, नय, निक्षेप आदि का वर्णन है, पर विश्लेषण नहीं है। भगवती में विविध विषयों की चर्चाएँ व्यापक रूप से की गई हैं पर वह इतना विराट् है कि सामान्य व्यक्ति के लिए उसका अवगाहन करना सम्भव नहीं है। ज्ञातासूत्र में कथाओं की ही प्रधानता है। उपासकदशांग में श्रावक जीवन का निरूपण है। अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिक में साधकों के उत्कृष्ट तप का निरूपण है। नन्दी में पांच ज्ञान के सम्बन्ध में चिन्तन है। अनुयोगद्वार में नय और प्रमाण का विश्लेषण है। छेदसूत्रों में प्रायश्चित्तविधि का वर्णन है। प्रज्ञापना में तत्त्वों का विश्लेषण है। राजप्रश्नीय में राजा प्रदेशी और केशी श्रमण का मधुर संवाद है। इस प्रकार आगम- साहित्य में जीवनस्पर्शी विचारों का गम्भीर चिन्तन हुआ है। किन्तु उत्तराध्ययन में जो सामग्री संक्षेप में संकलित हुई है, वैसी सामग्री अन्यत्र दुर्लभ है । इसलिए अन्य आगमों से इस आगम की अपनी इयत्ता है, महत्ता है। इसमें धर्मकथाएँ भी हैं, उपदेश भी और तत्त्वचर्चाएं भी हैं। त्याग वैराग्य की विमल धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं। धर्म और दर्शन तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र का इसमें सुन्दर संगम हुआ है।
मेरी चिरकाल से इच्छा थी कि उत्तराध्ययन का अनुवाद, विवेचन व सम्पादन करूँ । उस इच्छा की पूर्ति महामहिम युवाचार्य श्रीमधुकरमुनि जी की पावन प्रेरणा से सम्पन्न हो रही है। युवाचार्यश्री ने यदि प्रबल