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चतुर्थ अध्ययन असंस्कृत
अध्ययन-सार * प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन का नाम 'असंस्कृत' है । यह नाम भी अनुयोगद्वार-सूत्रोक्त आदान (प्रथम) पद
को लेकर रखा गया है। यह नामकरण समवायांग सूत्र के अनुसार है। नियुक्ति के अनुसार इस अध्ययन
का नाम 'प्रमादाप्रमाद' है, जो इस अध्ययन में वर्णित विषय के आधार पर है। * इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है—प्रमाद से बचना और जीवन के अन्त तक अप्रमादपूर्वक
मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति करना। * प्रस्तुत अध्ययन में भगवान् महावीर ने प्रमाद के कुछ कारण ऐसे बताए हैं, जिनका मुख्य स्रोत
जीवन के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण का अभाव है। दूसरे शब्दों में, वे भ्रान्त धारणाएँ या मिथ्या मान्यताएँ हैं, जिनसे बहक कर मनुष्य गुमराह हो जाता है और प्रमाद में पड़कर वास्तविक (मोक्ष) पुरुषार्थ से भटक जाता है। उस युग में जीवन के प्रति कुछ भ्रान्त धारणाएँ या मिथ्या लोकमान्यताएँ ये थीं,
जिन्हें प्रस्तुत अध्ययन में प्रमादस्रोत मान कर उनका खण्डन किया गया है१. 'जीवन संस्कृत है, अथवा किया जा सकता है, ऐसा तथाकथित संस्कृतवादी मानते थे। वे संस्कृत
भाषा में बोलने, खानपान और रहनसहन में भोगवादी दृष्टि के अनुसार सुधार करने, अपने भोगवादी अर्थकामपरक सिद्धान्तों को सुसंस्कृत भाषा में प्रस्तुत करने में, प्रेयपरायणता में, परपदार्थों की अधिकाधिक वृद्धि एवं आसक्ति में एवं मंत्र-तंत्रों, देवों या अवतारों की सहायता या कृपा से टूटे या टूटते हुए जीवन को पुनः साधने (संस्कृत) को ही संस्कृत जीवन मानते थे। परन्तु भगवान् महावीर ने उनका निराकरण करते हुए कहा -जीवन असंस्कृत है, अर्थात् टूटने वाला—विनश्वर है, उसे किसी भी मंत्र-तंत्रादि या देव, अवतार आदि की सहायता से भी सांधा नहीं जा सकता। बाह्यरूप से किया जाने वाला भाषा-वेशभूषादि का संस्कार विकार , अर्थकाम-परायणता है, जिसके लिए मनुष्य जीवन नहीं मिला है। साथ ही, तथाकथित संस्कृतवादियों को तुच्छ, परपरिवादी, परपदार्थाधीन,
प्रेयद्वेषपरायण एवं धर्मरहित बता कर उनसे दूर रहने का निर्देश किया है। २. 'धर्म बुढ़ापे में करना चाहिए, पहले नहीं;' इसका निराकरण भगवान् ने किया—'धर्म करने के लिए
सभी काल उपयुक्त हैं, बुढापा आएगा या नहीं, यह भी निश्चित नहीं है, फिर बुढ़ापा आने पर भी
कोई शरणदाता या असंस्कृत जीवन को सांधने - रक्षा करने वाला नहीं रहेगा।'३ १. (क) समवायांग, समवाय ३६,....' असंख्यं ।' (ख) उ. नियुक्ति, गा.१८१
पंचविहो य पमाओ इहमज्झयणमि अप्पमाओ अ ।
वण्णिएज उ जम्हा तेण पमायाप्पमायं ति ॥ २. उत्तराध्ययन मूल अ. ४, गा. १,१३ ३. 'जरोवणीयस्य हु नत्थि ताणं ।'-वही, अ. ४, गा.१