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________________ तृतीय अध्ययन ५३ 'चतुरंगीय क्वचित् पूर्व-जन्मसंस्कारप्रेरित धर्माराधना होती है, किन्तु वह अपूर्ण होती है। वह उन्हें मोक्ष की मंजिल तक नहीं पहुंचा सकती। मनुष्य में धर्मविवेक जागृत हो सकता है परन्तु अधिकांश मनुष्य विषयसुखों की मोहनिद्रा में ऐसे सोये रहते हैं कि वे सांसारिक कामभोगों के दलदल में फँस जाते हैं, अथवा साधनाविहीन व्यक्ति कामभोगों की प्राप्ति की पिपासा में सारी जिन्दगी बिताकर इन परम दुर्लभ अंगों को पाने के अवसर खो देते हैं। उनकी पुनः पुनः दीर्घ संसारयात्रा चलती रहती है। कदाचित् पूर्वजन्मों के प्रबल पुनीत संस्कारों एवं कषायों की मन्दता के कारण प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से. दयालुता—सदय-हृदयता से एवं अमत्सरता-परगुणसहिष्णुता से मनुष्यायु का बन्ध हो कर मनुष्यजन्म प्राप्त होता है। इसी कारण मनुष्यभव दुर्लभता के दस दृष्टान्त नियुक्ति में प्रतिपादित किये हैं। नियुक्तिकार ने मनुष्यजन्म प्राप्त होने के साथ-साथ जीवन की पूर्ण सफलता के लिए और भी १० बातें दुर्लभ बताई हैं। जैसे कि -(१) उत्तम क्षेत्र. (२) उत्तम जाति-कुल, (३) सर्वांगपरिपूर्णता, (४) नीरोगता, (५) पूर्णायुष्य, (६) परलोक-प्रवणबुद्धि, (७) धर्मश्रवण, (८) धर्म-स्वीकरण, (९) श्रद्धा और (१०) संयम। इसीलिए मनुष्यशरीर प्राप्त होने पर भी शास्त्रकार ने मनुष्यता की प्राप्ति को सबसे महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ माना है। वह प्राप्त होती है-शुभ कर्मों के उदय से तथा क्रमशः तदनुरूप आत्मशुद्धि होने से। यही कारण है कि यहाँ सर्वप्रथम मनुष्यता-प्राप्ति ही दुर्लभ बताई है। * तत्पश्चात् द्वितीय दुर्लभ अंग है—धर्मश्रवण। धर्मश्रवण की रुचि प्रत्येक मनुष्य में नहीं होती। जो महारम्भी एवं महापरिग्रही हैं, उन्हें तो सद्धर्मश्रवण की रुचि ही नहीं होती। अधिकांश लोग दुर्लभतम मनुष्यत्व को पा कर भी धर्मश्रवण का लाभ नहीं ले पाते, इसके धर्मश्रवण में विघ्नरूप १३ कारण (काठिये) नियुक्तिकार ने बताए हैं—(१) आलस्य, (२) मोह (पारिवारिक या शरीरिक मोह के कारण विलासिता में डूब जाना, व्यस्तता में रहना.)(३) अवज्ञा या अवर्ण(धर्मशास्त्र या धर्मोपदेशक के प्रति अवज्ञा या गर्दा का भाव), (४) स्तम्भ (जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य आदि का मद-अहंकार), (५) क्रोध (अप्रीति), (६) प्रमाद (निद्रा, विकथा आदि) (७) कृपणता (द्रव्य-व्यय की आशंका), (८) भय, (९) शोक (इष्टवियोगअनिष्टसंयोगजनित चिन्ता), (१०) अज्ञान (मिथ्या धारणा), (११) व्याक्षेप (व्याकुलता), (१२) कुतूहल (नाटक आदि देखने की आकुलता), (१३) रमण (क्रीड़ापरायणता)। सद्धर्म श्रवण न १. 'चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं.-पगतिभद्दयाए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए।' -स्थानांग, स्थान ४, सू. ६३० २. चुल्लग पासगधन्ने, जूए रयणे य सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणू, दस दिटुंता मणुअंलभे॥ -उत्तराध्ययननियुक्ति, गा० १६० ३. माणुस्सखित्त जाई कुलरूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा, संजमो अलोगंमि दुल्लहाई॥ -उ० नियुक्ति, गा० १५९ ४. कम्माणं तु पहाणाए..... जीवासोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं।' –उत्तरा० अ० ३, गा० ७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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