________________
प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र
विवेचन—पडिरूवेण के पाँच अर्थ - चूर्णिसम्मत अर्थ (१) प्रतिरूप— शोभन रूपवाला, (२) उत्कृष्ट वेश वाला अर्थात् — रजोहरण, गोच्छग और पात्रधारक, और जिनप्रतिरूपक यानी तीर्थंकर के समान पाणिपात्र हो कर भोजन करने वाला। प्रकरणसंगत अर्थ — स्थविरकल्पी या जिनकल्पी, जिस वेश में हो, उसी रूप में। प्रतिरूप का अर्थ प्रतिबिम्ब भी है, अतः अर्थ हुआ — तीर्थंकर या चिरन्तन मुनियों के समान वेश वाला । १
भिक्षागत-दोषों के त्याग का संकेत - 'नाइउच्चे व नीए वा' ऊर्ध्वमालापहृत और अधोमाला दोषों की ओर, ‘नासन्ने नाइदूरओ' ये दो पद गोचरी के लिए गये मुनि के द्वारा गृहस्थ - गृहप्रवेश की मर्यादा की ओर संकेत करते हैं तथा फासुयं, परकडं, पिंड आदि भिक्षादोषों के त्याग का संकेत दशवैकालिक में मिलता है। २
अप्पपाणे अप्पबीयंमि—इन दोनों में अल्प शब्द अभाववाचक है। इन दोनों पदों का क्रमशः अर्थ होता है— प्राणी रहित या द्वीन्द्रियादिजीव-रहित स्थान में, बीज (एकेन्द्रिय) से रहित स्थान में । उपलक्षण से इन दोनों पदों का अर्थ होता है – समस्त त्रस - स्थावर जन्तुओं से रहित स्थान में । ३
पडिच्छन्नंमि संवुडे—इन दोनों का अर्थ क्रमशः ऊपर से ढँके हुए स्थान — उपाश्रय में तथा पार्श्व में दीवार आदि से संवृत्त स्थान — उपाश्रय में होता है। इन दोनों पदों के विधान का आशय यह है कि साधु खुले में भोजन न करे, क्योंकि वहाँ संपातिम (ऊपर से गिरने वाले) सूक्ष्म जीवों का उपद्रव संभव है। अत: ऐसे स्थान में आहार करे जो ऊपर से छाया हुआ हो तथा बगल में भी भींत, टाटी या पर्दा आदि से ढँका हुआ हो । 'संवुडे' शब्द स्थान के विशेषण के अतिरिक्त चूर्णिकार और शान्त्याचार्य द्वारा संवृत्त (सर्वेन्द्रियगुप्त — संयत) या साधु का विशेषण भी माना गया है।
समयं — दो अर्थ हैं— (१) साथ में और (२) समतापूर्वक । यह शब्द गच्छ-वासी साधुओं की समाचारी का द्योतक है। 'भुंजे' क्रिया के साथ इसका आशय यह है कि मडण्लीभोजी साधु अपने सहधर्मी साधुओं को निमंत्रित करके उनके साथ आहार करे, अकेले न करे। चूर्णि में इस अर्थ के अतिरिक्त यह भी बताया है कि यदि अकेला भोजन करे तो समभावपूर्वक करे ।
विनीत और अविनीत शिष्य के स्वभाव एवं आचरण से गुरु प्रसन्न और अप्रसन्न
१.
(क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ३९
२. (क) दशवैकालिक ५/१/ ६७-६८-६९
३.
४.
५.
३७. रमए पण्डिए सासं हयं भदं व वाहए ।
बाल सम्म सासन्तो गलियस्सं व वाहए ॥
[३७.] मेधावी (पण्डित— विनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु वैसा ही प्रसन्न होता है,
१९
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५९ (ख) वही, अ० ५ / १/२४
(ग) सुखबोधा, पत्र ११ (ग) वही, ८ / २३, ८/५१
(क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ४०
(क) सुखबोधा, पत्र १२
(ग) संवृत्ते — पार्श्वत: कटकुड्यादिना संकटद्वारे, अटव्यां कडगादिषु — बृहद्वृत्ति, पत्र ६ - ६१ (ख) सुखबोधा, पत्र १२
(क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६१
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०
(ख) 'संवुडो नाम सव्वेंदियगुत्तो' संवृत्तो वा सकलाश्रवविरमणात् ।
(ग) उत्तरा० चूर्णि, पृ० ४०