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प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र
[४] जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया [घृणापूर्वक] सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्व जगह से [अपमानित कर के] निकाल दिया जाता है।
५. कण-कुण्डगं चइत्ताणं, विट्ठ भुंजइ सूयरे।
एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए॥ [५] जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़ कर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार अज्ञानी (मग पशबुद्धि) शिष्य शील (सदाचार) को छोड़कर दुःशील (दुराचार) में रमण करता है।
विवेचन-दुस्सील- जिसका शील-स्वभाव, समाधि या आचार रागद्वेषादि दोषों से विकृत है, वह दुःशील कहलाता है।
____ मुहरी- शब्द के तीन रूप - मुखरी, मुखारि और मुधारि। मुखरी-वाचाल, मुखारि—जिसका मुख [जीभ] दूसरे को अरि बना लेता है, मुधारि -व्यर्थ ही बहुत-सा असम्बद्ध बोलने वाला।
सव्वसो निक्कसिज्जइ-दो अर्थ—सर्वतः एवं सर्वथा। सर्वतः अर्थात्-कुल, गण, संघ, समुदाय, आदि सब स्थानों से, अथवा सर्वथा—बिल्कुल निकाल दिया जाता है।
कणकुंडगं—दो अर्थ-चावलों की भूसी अथवा चावलमिश्रित भूसी, पुष्टिकारक एवं सूअर का प्रिय भोजन।
मिएका शब्दश: अर्थ है-मृग। बृहद्वृत्तिकार का आशय है-अविनीत शिष्य मृग की तरह अज्ञ (पशुबुद्धि) होता है। जैसे—संगीत के वशीभूत होकर मृग छुरा हाथ में लिये बधिक को-अपने मृत्युरूप अपाय को नहीं देख पाता, वैसे ही दुःशील अविनीत भी दुराचार के कारण अपने भवभ्रमणरूप अपाय को नहीं देख पाता। विनय का उपदेश और परिणाम
६. सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य।
विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो॥ [६] अपना आत्महित चाहने वाला साधु, (सड़े कान वाली) कुतिया और (विष्ठाभोजी) सूअर के समान, दुःशील से होने वाले अभाव (-अशोभन-हीनस्थिति) को सुन (समझ) कर अपने आपको विनय (धर्म) में स्थापित करे।
७. तम्हा विणयमेसेज्जा, सीलं पडिलभे जओ।
बुद्ध-पुत्त नियागट्ठी, न निक्कसिज्जइ कण्हुई। [७] इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए, जिससे कि शील की प्राप्ति हो। जो बुद्धपुत्र (प्रबुद्ध गुरु का पुत्रसम प्रिय), मोक्षार्थी शिष्य है, वह कहीं से (गच्छ, गण आदि से) नहीं निकाला जाता। १. बृहवृत्ति, पत्र ४५ २. वही, पत्र ४५ ३. (क) वही, पत्र ४५ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २७ ४. वही, पत्र ४५