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द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण
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संभावना नहीं रहती और रसलोलुपता भी अनायास ही मिट जाती है। यह सुनकर शिष्य ने कहा—'यदि पश्चात्कर्म दोष से बचने के लिए अलेपकर आहार लिया जाना ठीक हो तो, फिर आहार ही न लिया जाए, जिससे किसी भी दोष का प्रसंग न आए।' आचार्य ने कहा 'वत्स! सदा अनाहार रहने से चिरकाल तक होने वाले व्रत, तप, नियम और संयम की हानि होती है। इसलिए जीवनभर का उपवास करना ठीक नहीं।' शिष्य ने पुनः तर्क किया—'यदि ऐसा न हो सके लगातार छह-छह महीने के उपवास किए जाएं और पारणे में अलेपकर आहार लिया जाए तो क्या हानि है ?' आचार्य ने कहा—'यदि ऐसा करते हुए संयमयात्रा चल सके तो कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु इस काल में शारीरिक बल सुदृढ़ नहीं है, इसलिए तप उतना ही करना चाहिए जिससे शरीर अपनी धर्मक्रिया (प्रतिलेखनप्रतिक्रमणादि) ठीक तरह से कर सके, मन में दुर्ध्यान पैदा न हो।' निष्कर्ष यह है साधु का आहार मुख्यतया अलेपकर होना चाहिए, किन्तु जहां पश्चात्कर्म दोष की संभावता हो तो तप, संयम-योग की दृष्टि से शरीर की उचित आवश्यकतानुसार लेपकर आहार भी लिया जा सकता है।
-पिण्डनियुक्ति, गा.६१३-२६
(११) मुधादायी दुर्लभ है
(दुल्लहाओ मुहादाई....) एक परिव्राजक संन्यासी घूमता-घामता किसी भागवत के यहां पहुंचा और बातचीत के सिलसिले में बोला'मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास करना चाहता हूं। तुम्हारा स्थान मुझे बहुत पसन्द है। यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं यहां चातुर्मास कर सकता हूं। आशा है, चातुर्मासिक सेवा का लाभ तम अवश्य लोगे।'
भागवत ने कहा—'भगवन्! बड़ी कृपा होगी, यदि आप मेरे यहां चौमासा करें। आपकी सेवा यह दास सहर्ष करेगा। मेरा अहोभाग्य है कि आप जैसे त्यागी पुरुषों का मेरे यहां निवास होगा। परन्तु मेरी एक शर्त आपको स्वीकार करनी होगी। वह यह है कि आप मेरे यहां प्रसन्नता से और निःस्पृहभाव से रहें। मेरे घर और परिवार से सम्बन्धित कोई भी कार्य आप नहीं करेंगे। चाहे मेरा कोई भी कार्य बनता या बिगड़ता हो, आपको उसमें हस्तक्षेप नहीं करना होगा। मुझ पर आप किसी प्रकार का ममत्वभाव नहीं रखें।' परिव्राजक ने भागवत की शर्त स्वीकार करते हुए कहा—'ठीक है, मैं ऐसा ही करूंगा। मुझे भला, तुम्हारे कार्यों में हस्तक्षेप करके अपना संन्यासीपन खोने से क्या लाभ। मैं निःस्पृह, निर्लेप और नि:संग रहूंगा।' संन्यासी ठहर गए। भागवत उनकी अशन-वसन आदि से खूब सेवाभक्ति करने लगा। एक दिन रात्रि के समय भागवत के घर में चोर घुसे और उसका घोड़ा चुरा ले गए। प्रभात का समय हो जाने से चोरों ने उस घोड़े को नगर के बाहर तालाब पर एक पेड़ से बांध दिया, संन्यासीजी को पता लग गया। वे उस दिन बहुत जल्दी उठ गए और सीधे उसी तालाब पर स्नान करने पहुंच गए। वहां चोर उस घोड़े को बांध रहे थे। संन्यासीजी चोरों की करतूत समझ गए। फिर उन्हें भागवत की शर्त याद आ गई। सोचा शर्त के अनुसार तो मुझे भागवत को कुछ भी नहीं कहना चाहिए, परन्तु हृदय मानता नहीं है। संन्यासीजी से रहा न गया। वे शीघ्रता से भागवत के पास पहुंचे और प्रतिज्ञा-भंग से बचते हुए बोले—'मेरी बड़ी भूल हुई। मैं अपना वस्त्र तालाब पर भूल आया।' भागवत ने अपने नौकर को भेजा। नौकर ने भागवत के घोड़े को वहां बंधा देखा तो संन्यासीजी का वस्त्र लेकर शीघ्र आ पहुंचा। भागवत से घोड़े के विषय में कहा। भागवत सारी बात समझ गया और संन्यासीजी से बोला—'महात्मन्!