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दशवैकालिकसूत्र अन्धड़ और वर्षा होने के कारण सभी साध्वियां तितर-बितर हो गईं। उस भयंकर वर्षा से राजीमती साध्वी के सब वस्त्र भीग मए थे। एक गुफा को एकान्त निरापद समझकर उसमें प्रवेश किया। निर्जन स्थान जान कर व्याकुलतावश साध्वी राजीमती ने अपने सब वस्त्र उतार कर भूमि पर सुखा दिये। उसी गुफा में भगवान् श्री अरिष्टनेमि के छोटे भाई श्री रथनेमि मुनि ध्यानस्थ खड़े थे। बिजली की चमक में उनकी दृष्टि श्री राजीमती की निर्वस्त्र देह पर पड़ी। राजीमती का शरीरसौन्दर्य और एकान्तवास देख कर रथनेमि का चित्त कामभोगों की ओर आकर्षित हो गया। वे विमूढ़ होकर राजीमती से प्रार्थना करने लगे। इस पर विदुषी राजीमती ने विभिन्न युक्तिपूर्वक प्रबल वैराग्यपूर्ण उपदेश देकर श्री रथनेमि को संयममार्ग में स्थिर किया।
श्री राजीमती के प्रेरक वचनरूप अंकुश से जैसे रथनेमि का कामविकार क्षणभर में उपशान्त हो गया, वैसे ही तत्त्वज्ञ संयमी साधु का मन कामविकारग्रस्त हो जाने पर उसे वीतरागवचनरूपी अंकुश लगाकर शीघ्र ही कामविकार से निवृत्त हो जाना चाहिए।
-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २२ बृहवृत्ति
-दशवैकालिकसूत्र, अ. २, हारि. वृत्ति (९) अमूच्छित होकर भिक्षाचर्या करना
(संपत्ते भिक्खकालम्मि असंभंतो अमुच्छिओ.) भिक्षाचरी के समय साधु शब्दादि विषयों में आसक्त न होकर आहार की गवेषणा में रत रहे, इसके लिए जिनदासचूर्णि में गोवत्स और वणिकवधू का एक दृष्टान्त है
एक वणिक् के यहां गाय का छोटा-सा बछड़ा था। वह सबको अत्यन्त प्रिय था। घर के सभी लोग प्यार से उसकी सारसंभाल किया करते थे। एक दिन वणिक् के यहां कोई जीमणवार था। सभी लोग उसमें व्यस्त थे। बछड़े को पानी पिलाने या घास-चार डालने का किसी को ध्यान न रहा। दोपहर हो गई। वह भूख-प्यास के मारे रंभाने लगा। वणिक् की युवती पुत्रवधू ने उसे सुना तो वह जैसे सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित थी, वैसे ही झटपट घास और पानी लेकर बछड़े के पास पहुंच गई। बछड़े की दृष्टि घास और पानी पर टिक गई। उसने कुलवधू के रंग, रूप तथा वस्त्राभूषणों की साजसज्जा एवं शृंगार की ओर न तो देखा और न ही उसका विचार करके आसक्त और व्यग्र हुआ। ठीक इसी प्रकार साधुवर्ग भी आर्तध्यानादि से रहित होकर शब्दादि विषयों में तथा मनोज्ञ दृश्य आदि देखने में चंचलचित्त न होकर एक मात्र एषणासमिति से युक्त होकर भिक्षाचरी एवं आहारगवेषणा में ही ध्यान रखे।
दशवै. अ.५/१जिनदासचूर्णि
(१०) अलेपकर आहार कब लेना, कब नहीं?
(...दिजमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे०) पिण्डनियुक्ति में एक रोचक संवाद द्वारा बताया गया है कि असंसृष्ट (अलेपकर) आहार कब लेना चाहिए, कब नहीं?
आचार्य ने शिष्य से कहा—मुनि को अलेपकर (असंसृष्ट) आहार लेना चाहिए, इससे पश्चात्कर्म के दोष की