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द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या
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की रक्षा क्यों करनी चाहिए ? इसका उत्तर है—सुरक्षित की हुई आत्मा ही शारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों से मुक्त होकर अनन्त मोक्षसुख को प्राप्त होती है। इसके विपरीत जो आत्मा अरक्षित रहती है, वह एकेन्द्रिय आदि नानाविध जातियों (जन्म-मरण) के पथ की पथिक बनती है, जहां वह अनेकानेक असह्य दुःख भोगती है। आत्मरक्षा होती है—समस्त इन्द्रियों को सुसमाहित करने से अर्थात् उनकी बहिर्मुखी (विषयोन्मुखी) वृत्ति को रोक कर, इन्द्रियों के विषय-विकारों से निवृत्त होकर आत्मा की परिचर्या में समाहित—एकाग्र करने से।
॥विविक्तचर्या : द्वितीय चूलिका समाप्त ॥ [बारहवां : विविक्तचर्या नामक अध्ययन समाप्त ]
॥ दशवैकालिकसूत्र सम्पूर्ण ॥
१७. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ५
(ख) दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.१०६३