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सावद्यभाषा से कर्मबन्ध होता है। जिस श्रमण को सावध और अनवद्य का विवेक नहीं है, उसके लिए मौन रहना ही अच्छा है। आचारांगसूत्र में मुनि के लिए मौन का विधान है—'मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं'-मुनि मौनसंयम को स्वीकार कर कर्मबन्धनों का क्षय करता है। सत्य और असत्यामषा अर्थात व्यवहार भाषा का प्रयोग यदि निरवद्य है तो उस भाषा का प्रयोग श्रमण कर सकता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बताने वाली भाषा सत्य होने पर भी यदि किसी के दिल में दर्द पैदा करती है तो वह भाषा श्रमण को नहीं बोलनी चाहिए। जैसे अन्धे को अन्धा कहना, काने को काना कहना। सत्य होने पर भी वह अवक्तव्य है। बोलने के पूर्व साधक को सोचना चाहिए कि वह क्या बोल रहा है ? विज्ञ बोलने से पूर्व सोचता है तो मूर्ख बोलने के बाद में सोचता है। एक बार जो अपशब्द मुंह से निकल जाते हैं, उनके बाद केवल पश्चात्ताप हाथ लगता है। वाणी के असंयम ने ही महाभारत का युद्ध करवाया, जिसमें भारत की विशिष्ट विभूतियां नष्ट हो गईं। इस प्रकार वाणी का प्रयोग आचार का प्रमुख अंग होने के कारण उस पर सूक्ष्म चिंतन इस अध्ययन में किया गया है। विवेकहीन वाणी और विवेकहीन मौन दोनों पर ही नियुक्तिकार भद्रबाहु ने चिन्तन किया है। जिस श्रमण में बोलने का विवेक है, भाषासमिति का पूर्ण परिज्ञान है वह बोलता हुआ भी मौनी है और अविवेकपूर्वक जो मौन रखता है, उसका मौन वाणी तक तो सीमित रहता है पर अन्तर्मानस में विकृत भावनाएं पनप रही हों तो वह मौन सच्चा मौन नहीं है। उदाहरण के रूप में कोई श्रमण रुग्ण है, गुरुजन रात्रि में शिष्य को आवाज देते हैं। यदि शिष्य सोचे कि इस समय बोले तो सेवा के लिए उठना पड़ेगा, अतः मौन रख लूं। इस प्रकार सोच कर वह उत्तर नहीं देता है तो वह मौन सही मौन नहीं है। अतः साधक को हर दृष्टि से चिन्तनपूर्वक बोलना चाहिए, उसकी वाणी पर विवेक का अंकुश हो। धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत है, मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है।५५ सुत्तनिपात में उल्लेख है कि भिक्षु को अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए। वह विवेकपूर्ण वचन का ही प्रयोग करे। आचार्य मनु ने लिखा है मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए।१५६ महाभारत शान्तिपर्व में वचन-विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला है।५७ इन्द्रियसंयम : एक चिन्तन
प्रस्तुत अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से उद्धृत है।५८ आठवें अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है। आचार एक विराट् निधि है। जिस साधक को यह अपूर्व निधि प्राप्त हो जाती है, उसके जीवन का कायाकल्प हो जाता है। उसका प्रत्येक व्यवहार अन्य साधकों की अपेक्षा पृथक् हो जाता है उसका चलना बैठना, उठना सभी विवेकयुक्त होता है। वह इन्द्रियरूपी अश्वों को सन्मार्ग की ओर ले जाता है। उसकी मन-वचन-कर्म और इन्द्रियां उच्छृखल नहीं होती। वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में समभाव धारण करता है। राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्धन नहीं करता है—इन्द्रियों पर वह नियन्त्रण करता है। इन्द्रिय-संयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है। यदि श्रमण इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा तो श्रमणजीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा। प्रायः इन्द्रियसुखों की प्राप्ति के लिए
१५५. धम्मपद, ३६३ १५६. मनुस्मृति, ६/४६ १५७. महाभारत, शान्तिपर्व, १०९/१५-१९ १५८. सच्चप्पवायपुव्वा निजूढा होइ वक्कसुद्धी उ ।
—दशवैकालिक नियुक्ति, १७
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