SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यतीत हो जाने पर अचेल रहने का भी विधान है।४६ प्रशमरतिप्रकरण में आचार्य उमास्वाति ने धर्म-देहरक्षा के निमित्त अनुज्ञात पिण्ड, शैया आदि के साथ वस्त्रैषणा का भी उल्लेख किया है। उन्होंने उसी ग्रन्थ में श्रमणों के लिएं कौनसी वस्तु कल्पनीय है और कौनसी वस्तु अकल्पनीय है, इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए वस्त्र का उल्लेख किया है ।१४८ तत्त्वार्थभाष्य में एषणासमिति के प्रसंग में वस्त्र का उल्लेख किया है। इस प्रकार श्वेताम्बरसाहित्य में अनेक स्थलों पर वस्त्र का विधान श्रमणों के लिए प्राप्त है। आगमसाहित्य में सचेलता और अचेलता दोनों प्रकार के विधान मिलते हैं। अब प्रश्न यह है—श्रमण निर्ग्रन्थ अपरिग्रही होता है तो फिर वह वस्त्र किस प्रकार रख सकता है ? भंडोपकरण को भी परिग्रह माना गया है।५° पर आचार्य शय्यम्भव ने कहा—'जो आवश्यक वस्त्र-पात्र संयम साधना के लिए हैं वे परिग्रह नहीं हैं, क्योंकि उन वस्त्र-पात्रों में श्रमण की मूर्छा नहीं होती है। वे तो संयम और लज्जा के लिए धारण किए जाते हैं। वे वस्त्र-पात्र संयम-साधना में उपकारी होते हैं, इसलिए वे धर्मोपकरण हैं।' इस प्रकार परिग्रह की बहुत ही सटीक परिभाषा अध्ययन में दी गई है।५१ वाणी-विवेक : एक विश्लेषण सातवें अध्ययन का नाम वाक्यशुद्धि है। जैनधर्म ने वाणी के विवेक पर अत्यधिक बल दिया है। मौन रहना वचनगुप्ति है। विवेकपूर्वक वाणी का प्रयोग करना भाषासमिति है। श्रमण असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। वह स्त्रीविकथा, राजदेशविकथा, चोरविकथा, भोजनविकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति का परिहार करता है।५२ वह अशुभप्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोध कर वचनगुप्ति का पालन करता है।५३ मुनि प्रमाण, नय, निक्षेप से युक्त अपेक्षा दृष्टि से हित, मित, मधुर तथा सत्य भाषा बोलता है।५४ श्रमण साधना की उच्च भूमि पर अवस्थित है अतः उसे अपनी वाणी पर बहुत ही नियंत्रण और सावधानी रखनी होती है। श्रमण सावद्य और अनवद्य भाषा का विवेक रखकर बोलता है। इस प्रकार वचनसमिति का लाभ वक्ता और श्रोता दोनों को मिलता है। प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण को किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और किस प्रकार की भाषा नहीं बोलनी चाहिए, इस सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए कहा गया है कि श्रमण असत्य भाषा का प्रयोग न करे और सत्यासत्य यानी मिश्रभाषा का भी प्रयोग न करे, क्योंकि असत्य और मिश्र भाषा सावध होती है। १४६. उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिकन्ने अहापरिजुनाई वत्थाई परिट्ठविज्जा, अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाड़े अदुवा अचेले। -आचारांग ८/५०-५३ १४७. पिण्डः शय्या वस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यत् । कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ॥ -प्रशमरतिप्रकरण १३८ १४८. किंचिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्यं वा ॥ -प्रशमरतिप्रकरण १४५ १५०. अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य च उद्गमोत्पादनैषणादोष वर्जनम् –एषणा समितिः। -तत्त्वार्थभाष्य ९/५ १५१. तिविहे परिग्गहे पं. तं.–परिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे । -स्थानांग ३/९५ १५२-१५४. दशवैकालिक [४३]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy