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________________ ३७२ ५४९. पुत्तदार - परिकिण्णो मोहसंता संतओ । पंकोसन्नो जहा नागो, स पच्छा परितप्पई ॥ ८ ॥ दशवैकालिकसूत्र [५४३] इस विषय में कुछ श्लोक हैं— जब अनार्य (साधु) भोगों के लिए ( चारित्र - ) धर्म को छोड़ता है, तब वह भोगों में मूर्च्छित बना हुआ अज्ञ (मूढ) अपने भविष्य को सम्यक्तया नहीं समझता ॥२॥ [५४४] जब (कोई साधु) उत्प्रव्रजित होता है (अर्थात् चारित्रधर्म त्याग कर गृहवास में प्रवेश करता है) तब वह (अहिंसादि) सभी धर्मों से परिभ्रष्ट हो कर वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे आयु पूर्ण होने पर देवलोक के वैभव से च्युत हो कर पृथ्वी पर पड़ा हुआ इन्द्र ॥ ३ ॥ [५४५] जब (साधु प्रव्रजित अवस्था में होता है, तब ) वन्दनीय होता है, वही (अब संयम छोड़ने के) पश्चात् अवन्दनीय हो जाता है, तब वह उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार अपने स्थान से च्युत देवता ॥ ४ ॥ [५४६] प्रव्रजित अवस्था में साधु पूज्य होता है, वही (उत्प्रव्रजित हो कर गृहवास में प्रवेश करने के) पश्चात् जब अपूज्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य से भ्रष्ट राजा ॥५॥ [५४७] (दीक्षित अवस्था में) साधु माननीय होता है, वही (उत्प्रव्रजित होकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के) पश्चात् जब अमाननीय हो जाता है, तब वह वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कर्बट (छोटे-से गंवारू गांव) में अवरुद्ध (नजरबंद) किया हुआ (नगर) सेठ ॥ ६ ॥ [५४८] उत्प्रव्रजित (दीक्षा छोड़ कर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट) व्यक्ति यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर जब बूढ़ा हो जाता है, तब वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कांटे को निगलने के पश्चात् मत्स्य ॥७॥ [ जब संयम छोड़ा हुआ साधु दुष्ट कुटुम्ब की कुत्सित चिन्ताओं से प्रतिहत ( आक्रान्त) होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे ( विषयलोलुपतावश ) बन्धन में बद्ध हाथी ।] [५४९] पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से व्याप्त वह दीक्षा छोड़ने के बाद (गृहवास में प्रविष्ट साधु) पंक में फंसे हुए हाथी के समान परिताप करता है ॥ ८ ॥ विवेचन—उत्प्रव्रजित साधु की पश्चात्ताप - परम्परा — प्रस्तुत सात गाथाओं (५४३ से ५४९ तक) में संयम छोड़ कर गृहवास में प्रविष्ट (उत्प्रव्रजित) साधु को कैसी-कैसी आधि-व्याधि-उपाधियों का सामना करना पड़ता है, उस दु:स्थिति में वह किस-किस प्रकार पश्चात्ताप करता है, यह विविध उपमाओं द्वारा प्रतिपादित किया गया है। उत्प्रव्रजित के पश्चात्ताप करने के कारण—यहां आठ गाथाओं में दीक्षा छोड़ कर गृहवास में प्रवेश करने वाले साधु को होने वाले पश्चात्तापों के ८ कारण बताए हैं- ( १ ) भविष्य को भूल जाता है—संयम को छोड़ने वाला व्यक्ति म्लेच्छों के समान चेष्टाएं करने वाला अनार्य बन जाता है। वह शब्द-रूप जिन विषयभोगों को पाने के लिए संयम छोड़ता है, उन वर्तमानकालीन क्षणस्थायी विषयसुखों में अतीव मूर्च्छित-मोहित होने पर उसे भविष्यत्काल का भान नहीं रहता। जिससे उसे भविष्य में भयंकर पश्चात्ताप करने का मौका आता है । ३ (२) सर्वधर्म - परिभ्रष्ट हो जाने के कारण- जैसे देवाधिपति इन्द्र आयुष्य क्षय होने पर देवलोक से च्युत होकर मनुष्यलोक में आता है, तब वह अत्यधिक शोक करता है कि 'हाय ! मेरा वह अनुपम वैभव नष्ट हो गया। ३. दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०१०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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