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________________ ३६० दशवकालिकसूत्र ५४१. न देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्चहिय-ठियप्पा । छिंदित्तु जाई-मरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणरागमं+ गई ॥ २१॥ -त्ति बेमि ॥ ॥दसमं स भिक्खू अज्झयणं समत्तं ॥ [५३५] जो (साधु) हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, जिसकी आत्मा सम्यक् रूप से समाधिस्थ है और जो सूत्र तथा अर्थ को विशेष रूप से जानता है, वह भिक्षु है ॥ १५॥ [५३६] जो (साधु वस्त्रादि) उपधि (उपकरण) में मूछित (आसक्त) नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करता है, जो संयम को निस्सार कर देने वाले दोषों से रहित है, जो क्रय-विक्रय और सन्निधि (संग्रहवृत्ति) से रहित है तथा सब प्रकार के संगों से मुक्त है, वही भिक्षु है ॥ १६ ॥ _[५३७] जो भिक्षु लोलुपता-रहित है, रसों में गृद्ध नहीं है, (आहारार्थ) अज्ञात कुलों में (थोड़ी-थोड़ी) भिक्षाचरी करता है, जो असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि (लब्धि आदि), सत्कार और पूजा (की स्पृहा) का त्याग कर देता है, जो (ज्ञानादि में) स्थितात्मा है और (आसक्ति या) छल से रहित है, वही भिक्षु है ॥१७॥ [५३८] 'प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक् होते हैं, ऐसा जानकर, जो दूसरों को (यह) नहीं कहता कि यह कुशील (दुराचारी) है।' तथा जिससे दूसरा कुपित हो, ऐसी बात भी नहीं कहता और जो अपनी आत्मा को सर्वोत्कृष्ट मानकर अहंकार नहीं करता, वह भिक्षु है ॥ १८॥ [५३९] जो जाति का मद नहीं करता, न रूप का मद करता है, न लाभ का मद करता है और न श्रुत का मद करता है, जो सब मदों को त्याग कर (केवल) धर्मध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है ॥ १९॥ [५४०] जो महामुनि (दूसरों के कल्याण के लिए) आर्य- (शुद्ध धर्म-) पद का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित (स्थिर) होकर दूसरे को भी धर्म में स्थापित (स्थिर) करता है, जो प्रव्रजित होकर कुशील-लिंग को छोड़ देता है तथा हास्य उत्पन्न करने वाली कुतूहलपूर्ण चेष्टाएं नहीं करता, वह भिक्षु है ॥२०॥ [५४१] अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला पूर्वोक्त भिक्षु इस अशुचि (अपवित्र) और अशाश्वत देहवास को सदा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म-मरण के बन्धन को छेदन कर अपुनरागमन नामक गति (सिद्धगति) को प्राप्त कर लेता है ॥ २१ ॥ —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन संयम में निरत : सद्भिक्षु प्रस्तुत ७ सूत्र गाथाओं (५३५ से ५४१) में साधु संयम में किस प्रकार तल्लीन रहता है और संयम के फलस्वरूप वह अपने जन्म-मरण के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त होकर किस पाठान्तर- + अपुणागमं ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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