SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ दशवकालिकसूत्र _(१) आत्मार्थी (या मोक्षार्थी) मुनि हितानुशासन सुनने की इच्छा करता है, (२) शुश्रूषा करता है— गुरु के अनुशासन को सम्यक्प से ग्रहण करता है, (३) उस (अनुशासन) के अनुकूल आचरण करता है, (४) (मैं) विनयसमाधि में (प्रवीण हूं, इस प्रकार के) अभिमान के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। विवेचन-विनयसमाधि के सूत्र प्रस्तुत दो सूत्रों (५११-५१२) में विनयसमाधि को जीवन में रमाने वाले साधक के चार सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है। 'सुस्सूसइ' आदि पदों के विशेषार्थ सुस्सूसइ शुश्रूषा करता है—सुनने की इच्छा करता है, अथवा सेवा करता है या सम्यक्रूप से ग्रहण करता है। वेयं वेद-श्रुतज्ञान या ज्ञान। आराहइ-शास्त्र में जिस प्रकार कहा है, तदनुकूल आचरण-आराधन करता है। आययट्ठिए : आयतार्थिक मोक्षार्थी, मोक्षाकांक्षी। - न य माणमएण मज्जा-गर्व के उन्माद से मत्त नहीं होता। अत्तसंपग्गहिए जिसकी आत्मा गर्व से संप्रगृहीत (अक्खड़ या अवलिप्त) हो।' श्रुतसमाधि के प्रकार ५१३. चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ । तं जहा—'सुयं मे भविस्सइ' त्ति अज्झाइयव्वं भवइ १, 'एगग्ग चित्तो भविस्सामि' त्ति अज्झाइयव्यं भवइ २, 'अप्पाणं ठावइस्सामि' त्ति अण्झाइयव्वं भवइ ३, "ठिओ परं ठावइस्सामि' त्ति अज्झाइयव्वं भवइ चउत्थं पयं भवइ ४ ॥७॥ ५१४. भवइ य एत्थ सिलोगो नाण १ मेगगचित्तो २ य ठिओ ३ ठावयई परं ४ । सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुयसमाहिए ॥ ८॥ [५१३] श्रुतसमाधि चार प्रकार की होती है, जैसे कि (१) 'मुझे श्रुत (आचारांगादि शास्त्रज्ञान) प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना उचित है। (२) (शास्त्रज्ञान से) 'मैं एकाग्रचित्त हो जाऊंगा,' इसलिए अध्ययन करना चाहिए। (३) (एकाग्रचित्त से) मैं अपनी आत्मा को (आत्मधर्म में स्व-भाव में) स्थापित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। (४) एवं (स्वधर्म में स्थित होकर) मैं दूसरों को (उसमें) स्थापित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए, यह चतुर्थ पद है ॥७॥ [५१४] इस (श्रुतसमाधि के विषय) में एक श्लोक है—(प्रतिदिन शास्त्राध्ययन के द्वारा सम्यक्) ज्ञान होता है, चित्त एकाग्र हो जाता है, (अपने आत्मधर्म में) स्थिति होती है और दूसरों को (उसमें) स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत (शास्त्रों) का अध्ययन कर श्रुतसमाधि में रत हो जाता है ॥ ८॥ ३. (क) आयरिय-उवज्झायादओ य आदरेण हिओवदेसगत्ति काऊण सुस्सूसइ । वेदो नाणं भण्णइ । तत्थ णं जहा भणितं तहेव कुव्वमाणो तमाराहयइ ति ।। -जिनदासचूर्णि, पृ. ३२७ (ख) शुश्रूषतीत्यनेकार्थत्वाद् यथाविषयमवबुध्यते । वेद्यतेऽनेनेति वेदः श्रुतज्ञानम् । आराधयति.....यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति । -हारि. वृत्ति, पत्र २५६ (ग) संपग्गहीतो गव्वेण जस्स अप्पा सो अत्तसंपग्गहितो । -अगस्त्यचूर्णि अत्तुक्करिसं करेइ त्ति, जहा विणीयो (हं) जहुत्तकारी य एवमादि । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३२६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy