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________________ दशवकालिकसूत्र दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ एवं रत्नाधिक साधुओं का विनय करे, (७) सत्यवादी हो, (८) आचार्य की सेवा में रहे, (९) आचार्य की आज्ञा का पालन करे, (१०) नम्र होकर रहे, (११) अज्ञातकुल में सामुदायिक विशुद्ध भिक्षाचरी करे, (१२) आहार प्राप्त न हो तो खेद न करे, प्राप्त होने पर श्लाघा न करे, (१३) संस्तारक, शय्या, आसनादि अत्यधिक मिलने लगे तो भी अल्पेच्छा रखे, थोड़े में सन्तुष्ट हो, संतोष में रत रहे, (१४) बिना किसी भौतिक लाभ की आशा से कर्णकटु वचनों को समभावपूर्वक सहन करे, (१५) परोक्ष में किसी का अवर्णवाद न करे, (१६) प्रत्यक्ष में वैरविरोध बढ़ाने वाली, निश्चयकारी तथा अप्रियकारी भाषा न बोले, (१७) जिह्वालोलुपता आदि से दूर हो, (१८) मंत्र-तंत्रादि ऐन्द्रजालिक प्रपंचों से दूर रहे, (१९) माया एवं पैशुन्य से दूर रहे, (२०) दीनवृत्ति न करे, (२१) न तो दूसरों से अपनी स्तुति कराए और न स्वयं अपनी स्तुति करे, (२२) खेल-तमाशे आदि कुतूहलवर्द्धक प्रवृत्तियों से दूर रहे, (२३) साधुगुणों को ग्रहण करे और असाधुगुणों को त्यागे, (२४) अपनी आत्मा को आत्मा से समझने वाला हो, (२५) रागद्वेष के प्रसंगों में सम रहे, (२६) किसी की भी अवहेलना, निन्दा एवं भर्त्सना न करे, (२७) अहंकार और क्रोध का त्याग करे, (२८) सम्मानार्ह तपस्वी, जितेन्द्रिय, सत्यवादी साधु पुरुषों का सम्मान करे, (२९) पंचमहाव्रतपालक, त्रिगुप्तिधारक और कषायचतुष्टयरहित हो, (३०) गुणसमुद्र गुरुओं के सुवचनों को सुनकर तदनुसार आचरण करे। ___'छंदमाराहयई' : व्याख्या छंद अर्थात् गुरु के अभिप्राय को समझ कर तदनुसार समयोचित कार्य करता है। यहां गुरु के अभिप्राय को समझने के लिए दो शब्द दिये हैं—'आलोकित' और 'इंगित'। उनका तात्पर्य है कि शिष्य गुरु के निरीक्षण और अंगचेष्टा से उनका अभिप्राय जाने और तदनुसार उनकी आराधना करे। निरीक्षण से अभिप्राय जानना जैसे कि गुरु ने कंबल की ओर देखा, उसे देख कर शिष्य ने तुरंत भांप लिया कि गुरुजी को ठंड लग रही है, उन्हें कंबल की आवश्यकता है। अंगचेष्टा से अभिप्राय जानना यथा—गुरुजी को कफ का प्रकोप हो रहा है। बार-बार खांसते हैं। शिष्य ने उनकी इस अंगचेष्टा को जानकर सोंठ आदि औषध ला कर सेवन करने को दी। अभिप्राय जानने के और भी साधन है, जिन्हें एक श्लोक में दिया है—'आकृति, इंगित (इशारा), गति (चाल), चेष्टा, भाषण, आंख और मुंह के विकारों से किसी के आन्तरिक मनोभावों को जाना जा सकता है।" विनय-प्रयोग का मुख्य प्रयोजन आचारप्राप्ति—ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, इन पंचाचारों की प्राप्ति के लिए गुरु आदि के प्रति विनय करना चाहिए, अन्य किसी लौकिक प्रयोजन, अर्थलाभ, पूजा-प्रतिष्ठा आदि के लिए नहीं। इसीलिए यहां कहा गया है—'आयारमट्ठा विणयं पउंजे'।' 'परियायजेट्ठा' आदि पदों की व्याख्या ज्येष्ठ' यहां स्थविर के अर्थ में प्रतीत होता है। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं—जाति-(वयः) स्थविर, श्रुतस्थविर और पर्याय—(दीक्षा) स्थविर। जाति और श्रुत से ज्येष्ठ न होने –हारि. वृत्ति, पत्र २५२ १. दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ९०४ से ९२८ तक का सार २. (क) यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने । (ख) इंगिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुण्ठ्यानयनेन । (ग) 'आकारैरिंगितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च । नेत्र-वक्त्रविकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥' ३. पंचविधस्स णाणाइ-आयारस्स अट्ठाए, साधु आयरियस्स विणयं पउंजेज्जा । हितोपदेश -जिनदासचूर्णि, पृ. ३१८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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