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________________ नवम अध्ययन : विनयसमाधि ३३५ [४९९] (एक साथ एकत्र हो कर सामने से) आते हुए कटुवचनों के आघात (प्रहार) कानों में पहुंचते ही दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं, (परन्तु) जो वीर-पुरुषों का परम अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष 'यह मेरा धर्म है' ऐसा मान कर (उन्हें समभाव से) सहन कर लेता है, वही पूज्य होता है ॥८॥ [५००] जो मुनि पीठ पीछे कदापि किसी का अवर्णवाद (निन्दावचन) नहीं बोलता तथा प्रत्यक्ष में (सामने में) विरोधी (शत्रुताजनक) भाषा नहीं बोलता एवं जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा (भी) नहीं बोलता, वह पूज्य होता है ॥९॥ [५०१] जो (रसादि का) लोलुप (लोभी) नहीं होता, इन्द्रजालिक (यंत्र-मंत्र-तंत्रादि के) .चमत्कार-प्रदर्शन नहीं करता, माया का सेवन नहीं करता, (किसी की) चुगली नहीं खाता, (संकट में घबरा कर या सरस आहारादि पाने के लाभ से किसी के सामने) दीनवृत्ति (दीनतापूर्वक याचना) नहीं करता, दूसरों से अपनी प्रशंसा (श्लाघा) नहीं करवाता और न स्वयं (अपने मुंह से) अपनी प्रशंसा करता है तथा जो कुतूहल (खेल-तमाशे दिखा कर कौतुक) नहीं करता, वह पूज्य है ॥ १०॥ [५०२] (मनुष्य) गुणों से साधु होता है, अगुणों (दुर्गुणों) से असाधु। इसलिए (हे साधक! तू) साधु के योग्य गुणों को ग्रहण कर और असाधु-गुणों (असाधुता) को छोड़। आत्मा को आत्मा से जान कर जो राग-द्वेष (राग-द्वेष के प्रसंगों) में सम (मध्यस्थ) रहता है, वही पूज्य होता है ॥ ११॥ । [५०३] इसी प्रकार अल्पवयस्क (बालक) या वृद्ध (बड़ी उम्र का) को, स्त्री या पुरुष को, अथवा प्रव्रजित (दीक्षित) अथवा गृहस्थ को उसके दुश्चरित की याद दिला कर जो साधक न तो उसकी हीलना (निन्दा या अवज्ञा) करता है और न ही (उसे) झिड़कता है तथा जो अहंकार और क्रोध का त्याग करता है, वही पूज्य होता है॥ १२ ॥ [५०४] (अभ्युत्थान आदि विनय-भक्ति द्वारा) सम्मानित किये गए आचार्य उन साधकों को सतत सम्मानित (शास्त्राध्ययन के लिए प्रोत्साहित एवं प्रशंसित) करते हैं, जैसे—(पिता अपनी कन्याओं को) यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करते हैं, वैसे ही (जो आचार्य अपने शिष्यों को योग्य स्थान, पद या सुपथ में) स्थापित करते हैं, उन सम्मानार्ह, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यपरायण आचार्यों का जो सम्मान करता है, वह पूज्य होता है॥१३॥ [५०५] जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुओं के सुभाषित (शिक्षावचन) सुनकर, तदनुसार आचरण करता है, जो पंच (महाव्रतों में) रत, (मन-वचन-काया की) तीन (गुप्तियों से) गुप्त (हो कर) चारों कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) से रहित हो जाता है, वह पूज्य होता है ॥ १४॥ विवेचन पूज्यत्व की अर्हताएँ प्रस्तुत चौदह गाथाओं (४९२ से ५०५ तक) में लोकपूज्य बनने वाले साधु के पूज्यत्व की अर्हताएँ दी गई हैं। लोकपूज्य बनने वाले साधक की तीस अर्हताएँ साधु की पूजा-प्रतिष्ठा केवल वेष या क्रियाकाण्डों के आधार पर नहीं होती। वह होती है गुणों के आधार पर। वे गुण या वे अर्हताएँ निम्नोक्त हैं, जिनके आधार पर साधु को पूज्यता प्राप्त होती है—(१) आचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहे, (२) उनकी दृष्टि और चेष्टाओं को जान कर अभिप्रायों के अनुरूप आराधना करे, (३) आचारप्राप्ति के लिए विनय-प्रयोग करे, (४) आचार्य के वचनों को सुनकर स्वीकार करे और तदनुसार अभीष्ट कार्य सम्पादित करे, (५) गुरु की आशातना न करे, (६)
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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