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________________ ३३० दशवैकालिकसूत्र [४८९] अविनीत (व्यक्ति) को विपत्ति और विनीत को सम्पत्ति (प्राप्त) होती है, जिसको ये (उक्त) दोनों प्रकार से (विपत्ति और सम्पत्ति) ज्ञात है, वही (इस कल्याणकारिणी) शिक्षा को प्राप्त होता है ॥२१॥ [४९०] जो मनुष्य चण्ड (क्रोधी) है, जिसे अपनी बुद्धि और ऋद्धि का गर्व (अथवा जिसकी बुद्धि आदि गौरव में निमग्न) है, जो पिशुन (चुगलखोर) है, जो (अयोग्यकार्य करने में) साहसिक है, जो गुरु-आज्ञा-पालन से हीन (पिछड़ा हुआ) है, जो (अपने श्रमण-) धर्म से अदृष्ट (अनभिज्ञ) है, जो विनय में निपुण नहीं है, जो संविभागी नहीं है, उसे (कदापि) मोक्ष (प्राप्त) नहीं होता ॥ २२॥ ___ [४९१] किन्तु जो (साधक) गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, जो (श्रुतार्थधर्मविज्ञ) गीतार्थ हैं तथा विनय में कोविद (निपुण) हैं, वे इस दुस्तर संसार-सागर (के प्रवाह) को तैर कर कर्मों का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट गति में गए हैं, (जाते हैं और जाएंगे) ॥ २३॥ —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन शिक्षा-प्राप्ति के अयोग्य : कौन और कैसे—गाथा ४८९ में 'विवत्ती अविणीयस्स' इत्यादि पंक्ति का भावार्थ यह है कि जो व्यक्ति अपने पूज्यवर गुरुजनों की विनय-भक्ति नहीं करता, इतना ही नहीं, बल्कि वह उद्धत होकर उनकी आशातना करता है, उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान आदि सद्गुणों की विनष्टि (विपत्ति) हो जाती है और पूर्वोक्त विनयगुणों से सम्पन्न सुविनीत पुरुष, जो अपने से स्थविर पूज्य गुरुजनों की सभी प्रकार से भक्तिभाव से यथोचित विनय करता है, उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि सद्गुणों की सम्यक् वृद्धि (सम्पत्ति) होती है। उक्त दोनों प्रकार से हानि और वृद्धि जिसे ज्ञात है, अर्थात् —अविनय हेय है, विनय पूर्णतः उपादेय है, इस बात को जो जान चुका है, वही गुरुजनों के सान्निध्य में रह कर उनकी कृपापूर्ण दृष्टि से ग्रहण और आसेवन, दोनों प्रकार की कल्याणकारिणी मोक्ष सुखदायिनी शिक्षा को प्राप्त करने के योग्य होता है। मोक्ष के लिए अयोग्य-पूर्व गाथा में उक्त शिक्षा के लिए अयोग्य अविनीत व्यक्ति के अतिरिक्त गाथा ४९० में बताया गया है कि जो साधक साधुजीवन में क्रोध की प्रचण्ड अग्नि में धधकता रहता है, जो अपने ऋद्धि और बुद्धि के गौरव (गर्व) में अन्धा होकर रहता है, जो अनाचारसेवन में साहसिक होता है तथा जो अपने गुरु की हितशिक्षाकारी आज्ञाओं के पालन करने में टालमटोल करता है, आज्ञा लोप करने में स्वयं को धन्य समझता है, जो धर्मकर्म की बात से अनभिज्ञ है, उन्हें निकम्मी समझकर उनकी खिल्ली उड़ाता है, जो विनय की विधियों से भी अपरिचित है, जिसे विनय व्यर्थ का भार मालूम होता है, जो प्राप्त अन्न, वस्त्र आदि अपने साथी साधुओं में वितरित नहीं करता, न ही उन्हें देता है, संविभाग (ठीक बंटवारा) नहीं करता, ऐसे दुर्गुणी व्यक्ति को मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती। यही इस गाथा का आशय है।५ __मोक्षप्राप्ति के योग्य-गाथा ४९१ के अनुसार जो साधक अपने स्वार्थों की परवाह न करके प्राणपण से सद्गुरुओं की आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं, जो श्रुतधर्म के सिद्धान्तों के सूक्ष्म रहस्यों के ज्ञाता (गीतार्थ) होते हैं तथा विनयधर्म के विधि-विधानों के विषय में दक्ष होते हैं, वे इस दुःखमय संसार सागर को सुखपूर्वक तैर कर तथा १४. दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८९७ १५. वही, पृ.८९९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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