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________________ ३२६ ( शिक्षक द्वारा ) घोर बन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं ॥ १३-१४॥ [ ४८३] फिर भी वे (राजकुमार आदि) गुरु के निर्देश के अनुसार चलने वाले (छात्र) उस शिल्प के लिए प्रसन्नतापूर्वक उस शिक्षकगुरु की पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं ॥ १५ ॥ [४८४] तब फिर जो साधु आगमज्ञान (श्रुत) को पाने के लिए उद्यत है और अनन्त - हित (मोक्ष) का इच्छुक है, उसका तो कहना ही क्या ? इसलिए आचार्य जो भी कहें, भिक्षु उसका उल्लंघन न करे ॥ १६ ॥ विवेचन — लोकोत्तर विनय की अनिवार्यता : मोक्षकामी के लिए प्रस्तुत ५ गाथाओं (४८० से ४८४ तक) में लौकिक लाभार्थ शिल्प, कला आदि में निपुणता के लिए कलाचार्य का दृष्टान्त देकर मोक्षकामी के द्वारा शास्त्रीय ज्ञान में नैपुण्य के लिए विनयभक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की गई है। आचार्य और उपाध्याय के लक्षण-आचार्य के चार लक्षण - (१) सूत्र - अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा जो गुरुपद पर स्थापित हो, वह आचार्य है । (२) सूत्र - अर्थ का ज्ञाता किन्तु अपने गुरु द्वारा गुरुपद पर स्थापित न हो, वह भी आचार्य कहलाता है । वृत्ति के अनुसार सूत्रार्थदाता अथवा गुरु- स्थानीय ज्येष्ठ आर्य 'आचार्य' कहलाता है । इस सबका फलितार्थ यह है कि गुरुपद पर स्थापित या अस्थापित जो सूत्र और अर्थ-प्रदाता है, वह आचार्य है। ओघनिर्युक्ति के अनुसार ' अत्थं वाएइ आयरिओ सुत्तं वाएइ उवज्झाओ।' अर्थात् — सूत्रवाचनाप्रदाता उपाध्याय होते हैं और अर्थवाचनाप्रदाता आचार्य होते हैं। 1 दशवैकालिक सिक्खा : शिक्षा गुरु के समीप रह कर प्राप्त किया जाने वाला शिक्षण । यह शिक्षा दो प्रकार की होती है(१) ग्रहणशिक्षा (शास्त्र - ज्ञान का ग्रहण करना) और (२) आसेवनशिक्षा (उस ज्ञान को आचार में क्रियान्वित करने का अभ्यास सीखना) । ६. उस युग की अध्यापनपद्धति — गाथा संख्या ४८२ से उस युग की अध्यापनपद्धति का पता लगता है, जंब अध्यापक अपने सुकोमल शरीरवाले शिक्षणार्थी को सांकल या रस्से से बांधते थे, चाबुक आदि से बेरहमी से मारतेपीटते थे और कठोर वचनों से डांटते-फटकारते और तरह-तरह से दारुण परिताप देते थे। वे अकारण ही ऐसा दण्ड नहीं देते थे, परन्तु जब शिक्षणार्थी शिल्प या कला सीखने में लापरवाही करता, बार-बार पढ़ाने या सिखाने पर भी भूल जाता, अपने उद्देश्य से स्खलित हो जाता, तभी शिक्षक का पुण्य - प्रकोप शिक्षणार्थी पर बरसता था और ७. ८. सिप्पा उणियाणि: शिल्पानि नैपुण्यानि – शिल्प शब्द कुम्भकार, लोहार, सुनार आदि के कर्म ( कारीगरी ) सम्बन्धित है और नैपुण्य शब्द चित्रकार, वादक, गायक आदि के कला-कौशल से । (क) सुत्तत्थतदुभयादिगुणसम्पन्नो अप्पणो गुरुहिं गुरुपदे स्थावितो आयरिओ । (ख) आगरिओ सुत्तत्थतदुभविऊ, जो वा अन्नोऽपि सुत्तत्थतदुभयगुणेहि य उववेओ आयरिओ चेव । (ग) आचार्यं सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठार्यम् । (घ) अत्थं वाएइ आयरिओ, सुत्तं उवाएइ वज्झाओ । —सूत्रप्रदा उपाध्यायाः, अर्थंप्रदा आचार्याः सिक्खा दुविहा- गहणसिक्खा आसेवणसिक्खा य । शिल्पानि - कुम्भकारक्रियादीनि, नैपुण्यानि - आलेख्यादि - कला - लक्षणानि । —अ. चूर्णि, पृ. ९/३/१ गुरुपए ण ठाविओ, सोऽवि — जिनदासचूर्णि, पृ. ३१८ हारि वृत्ति, पत्र २५२ — ओघनिर्युक्ति वृत्ति —जिनदासचूर्णि, पृ. ३१३ — हारि. वृत्ति, पत्र २४९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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